आस्था भट्टाचार्य
देश में कई महिलाएं ऐसी हैं जो विभिन्न क्षेत्रों में उम्दा कार्य कर न केवल अपने परिवार को भरण-पोषण कर रही हैं अपितु अन्य महिलाओं को स्वावलंबन की राह दिखा कर स्वाभिमान से जीना सिखा रही हैं। आइये जानते हैं ऐसी ही एक सामाजिक वीरांगना के बारे में।
ये हैं उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में रहने वालीं 44 वर्षीय रीता कौशिक। इनका जीवन संघर्षों की लंबी कहानी है। कहते हैं कि सच्चाई की कड़वाहट से लड़ने का हुनर तभी पैदा होता है, जब जिंदगी अपने भयावह रूप में सामने होती है। पूरा बचपन बेहद अभावों में बिताने वाली और अपने दम पर बीएससी करने वाली मुसहर समुदाय की रीता कौशिक ने कभी नहीं सोचा था कि वह हाशिए पर रहने वाले, गरीबी और भुखमरी झेलने को अभिशप्त समाज को अपने दम पर नई राह दिखा सकेंगी। आज वह अपनी संस्था के जरिए मुसहर समाज की शिक्षा और जागरूकता के लिए काम कर रही हैं। उनकी संस्था की पहुंच 112 ग्राम पंचायतों तक है।
सरकारी और निजी संगठनों के साथ मिलकर वह देश ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कार्य करने वाली संस्थाओं के साथ भी काम कर रही हैं। वह 25 हजार से अधिक बच्चों के जीवन में शिक्षा की अलख जगा रही हैं।
– रीता कौशिक की संस्था की 112 ग्राम पंचायतों तक पहुंच
उनकी कहानी 23 साल पुरानी है। संघर्ष और तमाम जिल्लतों को सहते हुए बड़ी हुईं रीता। घर पर छोटे भाई-बहनों की संरक्षिका रहने वाली बच्ची की पढ़ने की इच्छा तब बाहर आई, जब वह रोजाना भाई के स्कूल के बाहर उसका इंतजार करते थक जाती थी। फिर उसने उसी स्कूल के शिक्षक से पिछली बेंच पर बैठने और अपने लिए एक स्लेट देने की गुहार लगाई। बात बन गई और वह भी पढऩे लगी। स्कूल की हर परीक्षा में अव्वल रही।
हालांकि दलित होने के कारण उन्हें भेदभाव भी खूब झेलना पड़ा, लेकिन वह हार कहां मानने वाली थीं। रिक्शा चालक दलित पिता को अचानक बच्ची की शादी की चिंता सताने लगी और एक दिन रीता को न चाहते हुए बाल विवाह के लिए हामी भरनी पड़ी, पर विदाई के अगले ही दिन वह मायके वापस आ गईं। मन में पढऩे का जुनून लिए वह जीवन में कुछ करना चाहती थीं। अपनी इच्छा को पिता से साझा किया। पिता को उनकी अदम्य इच्छा के आगे झुकना पड़ा, पर कुछ ही समय बाद पैसे की कमी दीवार बनकर खड़ी हो गई। रीता ने इस चुनौती का भी बखूबी सामना किया। खुद को इस काबिल बनाया जिससे कि छोटी नौकरी भी मिल जाए ताकि मिलने वाले पैसे से पढ़ाई जारी रहे। उन्होंने बीएससी किया और जीवन की बागडोर अपने हाथ में थाम ली। आगे चलकर पुनर्विवाह किया। अपने जीवनसाथी के साथ मिलकर आज वह दलित समाज और अपने समुदाय के विकास के लिए कई काम कर रही हैं।