राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू
नई दिल्ली। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर 28 अगस्त, बुधवार को पहली बार विशेष लेख के जरिये अपना आक्रोश जाहिर किया। उन्होंने इस पर अंकुश लगाने का आह्वान करते हुए लिखा, बस बहुत हो चुका। राष्ट्रपति मुर्मू ने लिखा कि अब समय आ गया है कि भारत ऐसी विकृतियों के खिलाफ जागरूक हो और उस मानसिकता का मुकाबला करे जो महिलाओं को कम शक्तिशाली, कम सक्षम और कम बुद्धिमान मानता है।
राष्ट्रपति मुर्मू ने समाचार एजेंसी पीटीआई के लिए अपने विशेष हस्ताक्षरित लेख ‘महिला सुरक्षा बस! बहुत हो चुका’ में लिखा कि छात्र, डॉक्टर और नागरिक कोलकाता में जब प्रदर्शन कर रहे हैं तो उस समय भी अपराधी दूसरी जगह शिकार की तलाश में घात लगाए हुए हैं। पीड़ितों में छोटी-छोटी स्कूली बच्चियां तक शामिल हैं। उन्होंने लिखा कि महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों के लिए कुछ लोगों द्वारा महिलाओं को वस्तु के रूप में देखने की यही घृणित मानसिकता जिम्मेदार है। बेटियों के प्रति हमारी जिम्मेदारी है कि हम उनके भय से मुक्ति पाने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को दूर करें।
राष्ट्र के साथ मैं भी आक्रोशित हूं
नौ अगस्त को कोलकाता के एक अस्पताल में एक जूनियर डॉक्टर के साथ दुष्कर्म और उसकी हत्या का जिक्र करते हुए ‘स्तब्ध और व्यथित’ राष्ट्रपति ने लिखा कि इससे भी अधिक निराशाजनक बात यह है कि यह महिलाओं के खिलाफ अपराधों की श्रृंखला का हिस्सा है। राष्ट्रपति ने लिखा, कोई भी सभ्य समाज बेटियों और बहनों पर इस तरह के अत्याचार की अनुमति नहीं दे सकता। राष्ट्र का आक्रोशित होना निश्चित है, और मैं भी आक्रोशित हूं।
– महिलाओं को एक वस्तु मानने की घृणित मानसिकता बदलनी होगी
‘निर्भया’ का जिक्र, अभी तक हमारा काम अधूरा
राष्ट्रपति ने दिसंबर 2012 में दिल्ली में एक फिजियोथेरेपी इंटर्न के साथ बर्बर दुष्कर्म और उसकी हत्या का जिक्र करते हुए लिखा, हाल ही में मैं एक अजीब दुविधा में फंस गई थी। उन्होंने बताया कि राष्ट्रपति भवन में राखी मनाने आए कुछ स्कूली बच्चों ने मुझसे मासूमियत से पूछा कि क्या उन्हें भरोसा दिया जा सकता है कि भविष्य में ‘निर्भया’ जैसी घटना की पुनरावृत्ति नहीं होगी? मुर्मू ने कहा कि आक्रोशित राष्ट्र ने योजनाएं बनाईं और रणनीतियां तैयार कीं, और पहल से कुछ फर्क पड़ा। इसके बावजूद, जब तक एक भी महिला खुद को असुरक्षित महसूस करती रहेगी… हमारा काम अधूरा ही रहेगा।
उन्होंने कहा, राष्ट्रीय राजधानी में हुई उस त्रासदी के बाद के 12 वर्षों में, इसी तरह की अनगिनत त्रासदियां हुई हैं। हालांकि, उनमें से कुछ ने ही पूरे देश का ध्यान खींचा। इन्हें भी जल्द भुला दिया गया। जैसे-जैसे सामाजिक विरोध कम हुए, ये घटनाएं सामाजिक स्मृति के गहरे कोने में दब गईं, जिन्हें केवल तभी याद किया जाता है जब कोई और जघन्य अपराध होता है।
डरने वाले समाज स्मृतिलोप का सहारा लेते हैं
इतिहास अक्सर दर्द देता है। इतिहास का सामना करने से डरने वाले समाज सामूहिक स्मृतिलोप का सहारा लेते हैं और शुतुरमुर्ग की तरह अपने सिर को रेत में दबा लेते हैं। अब समय आ गया है कि न केवल इतिहास का सीधे सामना किया जाए, बल्कि अपनी आत्मा के भीतर झांका जाए और महिलाओं के खिलाफ अपराध की इस बीमारी की जड़ तक पहुंचा जाए।
सामाजिक पूर्वाग्रहों के साथ-साथ कुछ रीति-रिवाजों और प्रथाओं ने हमेशा महिलाओं के अधिकारों के विस्तार का विरोध किया है। यह एक बहुत ही विकृत मानसिकता है। इस तरह के अपराधों की स्मृतियों पर भूल का पर्दा नहीं पड़ने दें। आइए, इस विकृति से व्यापक तरीके से निपटें ताकि इसे शुरू में ही रोका जा सके। ऐसा तभी कर सकते हैं जब हम पीड़ितों की यादों का सम्मान करें।
स्वयं से कुछ मुश्किल सवाल पूछने की जरूरत
– हमसे गलती कहां हुई और इन गलतियों को दूर करने के लिए क्या कर सकते हैं?
– इन सवालों का जवाब खोजे जाने तक हमारी आधी आबादी, बाकी आधी आबादी की तरह स्वतंत्रतापूर्वक नहीं रह सकती।
– सबसे पहले जरूरत है कि ईमानदारी और बिना किसी पूर्वाग्रह के आत्मावलोकन किया जाए तथा हम भविष्य में और अधिक सतर्क रहें।