दीपक द्विवेदी
देश के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चन्द्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित सात न्यायमूर्तियों की संविधान पीठ ने गत 4 मार्च को सर्वसम्मति से ऐतिहासिक निर्णय देकर सांसदों व विधायकों के सदन के भीतर वोट देने या वक्तव्य देने के लिए रिश्वत लेने को अपराध की श्रेणी में डाल कर साफ कर दिया है कि इन सदस्यों को मिले विशेषाधिकारों का अर्थ जुर्म से उनका बरी होना नहीं है। वोट के बदले नोट मामले पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी खुशी जताई और लिखा है कि स्वागतम! माननीय सुप्रीम कोर्ट का एक अच्छा फैसला, जो बेदाग राजनीति और व्यवस्था में लोगों के विश्वास को पुख्ता करेगा।
अपने इस ऐतिहासिक फैसले से शीर्ष अदालत ने 1998 के नरसिम्हा राव बनाम सीबीआई मामले में दिए गए निर्णय को पलट दिया है। पांच जजों की पीठ ने तब यह फैसला 3-2 के बहुमत से दिया था। जब यह फैसला आया था तब उसने देश के प्रबुद्ध वर्ग में गहरी निराशा भर दी थी। 1998 के फैसले के अनुसार विधायिका का कोई भी सदस्य अपना वोट बेच सकता था। इसे उसका विशेषाधिकार माना गया था जिसके लिए उस पर कोई मुकदमा भी नहीं चलाया जा सकता था। विधायिका के सदस्य पर मुकदमा तभी चल सकता था जब वह पैसे लेकर पैसे देने वाले की इच्छा के अनुसार मत न दे। स्पष्ट है कि यह एक विचित्र लॉजिक था जिसके हिसाब से रिश्वत लेना तो माफ था पर रिश्वत लेकर बेईमानी करने को अक्षम्य अपराध माना गया था।
1998 के फैसले के बाद देश के संसदीय लोकतंत्र में रिश्वत का खेल अत्यधिक बढ़ गया था। हालात ऐसे हो जाते हैं कि किसी भी राज्य में चुनाव होने के बाद राजनीतिक दल अपने चुने गए सदस्यों को बसों अथवा विमानों में भर कर किसी दूरदराज के रिसॉर्ट या होटल या अन्य राज्य में ले जाते हैं ताकि कोई विरोधी दल उनको खरीद न सके। इसका ताजा उदाहरण अभी हाल ही में झारखंड में देखने को मिला था।
पार्टियों को यह डर सताता है कि उनके सांसद या विधायक खरीद लिए जाएंगे और बिकने के बाद वे अपना वोट किसी दूसरी पार्टी के हित में डाल देंगे और उनकी पार्टी उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती। उम्मीद की जा सकती है कि अब सुप्रीम कोर्ट का नया फैसला देश में एक नई त्रुटिविहीन व्यवस्था का निर्माण करने में मदद करेगा। अभी तक संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) के तहत सांसदों और विधायकों को सदन के अंदर कुछ कहने और करने का विशेषाधिकार मिला हुआ था। परिणामस्वरूप कई बार माननीयों द्वारा भाषण के दौरान ऐसे-ऐसे अभद्र आरोप लगाए जाते रहे हैं कि अगर वे सदन के बाहर लगाए जाएं तो सांसद या विधायक पर आपराधिक अवमानना या कानून के तहत अन्य अपराधों के लिए मुकदमा तक दर्ज हो जाए।
अब कम से कम यह बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि रिश्वत लेकर वोट देना विधानमंडल के सदस्यों के विशेषाधिकार में नहीं आता और न ही रिश्वत लेकर सवाल पूछना अथवा विशेष प्रकार का भाषण देना संसदीय विशेषाधिकार है। ताजा फैसला आशा की किरण जगाता है कि अब भारतीय लोकतंत्र में अधिक शुचिता आएगी एवं जिम्मेदारी बढ़ेगी। जनप्रतिनिधि देश की जनता को धोखा नहीं दे पाएंगे और अपने दल की इच्छानुसार ही अपना मत डालेंगे।
दरअसल इन विशेषाधिकारों को विदेश की तर्ज पर भारत के संविधान में स्थान दिया गया। इस व्यवस्था में भारतीय संस्कृति की मूल भावना के रंच मात्र भी दर्शन नहीं होते । भारतीय संस्कृति और राज दर्शन में राजा को कानून से ऊपर स्थान नहीं है। इंग्लैंड में यह नियम है कि ‘किंग कैन डू नो रॉन्ग’ अर्थात ‘राजा कोई गलती कर ही नहीं सकता।’ इसके विपरीत भारत में राजा भी धर्म के अधीन होता है और न्याय के लिए उसको भी दंड दिया जा सकता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति को ध्यान में रखते हुए अब हमारी संसद को भी संसदीय विशेषाधिकारों से संबद्ध अनुच्छेदों को समाप्त कर देना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सदन में सदस्य भाषण देते समय सभी मर्यादाओं का ध्यान रखें। यह कहना शायद गलत नहीं होगा कि इस प्रकार के विशेषाधिकार किसी भी व्यक्ति को न दिए जाएं जिनसे कहीं न कहीं संविधान की उस मूल भावना का भी उल्लंघन होता है जिसमें देश के सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए जाने की बात कही गई है। जिस प्रकार सामान्य व्यक्ति पर कानून लागू होता है, वैसे ही विधायिका के सदस्यों पर भी कानून लागू होने चाहिए। इससे उनकी कार्यक्षमता पर भी कोई असर नहीं पड़ेगा क्योंकि विधायिका के सदस्यों का यह काम नहीं है कि वे सदन में झूठ बोलें, गलत तथ्य पेश करें, दुर्भावनापूर्ण भाषण दें या दूसरों की मर्यादा को तार-तार करें। हमें यह आशा करनी चाहिए कि अगली संसद इस फैसले के बाद सभी विशेषाधिकारों को समाप्त कर देगी।
न्यायमूर्तियों के मुताबिक विशेषाधिकारों का सृजन सदनों की कार्यवाहियों को निरापद ढंग से चलाने के लिए किया गया था न कि आपराधिक गतिविधियों की अनदेखी करने के लिए। भ्रष्टाचार या रिश्वत एक अपराध है जिसे सदन के भीतर या बाहर एक दृष्टि से देखना होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने साफ किया है कि लोकतन्त्र को स्वस्थ, गतिशील व जवाबदेह बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था करना जरूरी होगा। न्यायमूर्ति चन्द्रचूड़ की पीठ ने इसी मुद्दे पर छाई धुंध को छांटने का काम करते हुए अब जो ताजा निर्णय दिया, वह हमारी विधायिका के लिए एक मील का पत्थर साबित हो सकता है। सर्वोच्च अदालत ने तो अपना काम कर दिया है। अब बारी है संसद की कि वह कानून में जरूरी बदलाव करे और विधायिका सदस्यों को मिले विशेषाधिकारों को ही खत्म कर दे ताकि लोकतांत्रिक व्यवस्था में शुचिता का वास हो सके।