ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। वोट के बदले नोट मामले में माननीयों को अभियोजन से छूट देने के 25 साल पुराने अपने आदेश पर पुनर्विचार के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने फैसला सुरक्षित रख लिया। 1998 के आदेश में संविधान पीठ ने कहा था कि सांसदों और विधायकों को विधायिका में भाषण देने या वोट देने के लिए रिश्वत लेने पर अभियोजन से छूट प्राप्त है।
सीजेआई जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय पीठ के समक्ष अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने केंद्र का पक्ष रखा। अटॉर्नी जनरल ने कहा, मेरी राय है कि जो कुछ भी कानून में स्पष्ट रूप से निषिद्ध है, उसे इन अनुच्छेदों (105 और 194) के तहत आश्रय नहीं मिल सकता है। मुझे नहीं लगता कि कोई भी जिम्मेदार सरकार या सार्वजनिक प्राधिकरण यह रुख अपना सकता है। हालांकि, एक निर्वाचित प्रतिनिधि को बिना किसी बाधा या अनुचित दबाव के विधायी कार्य के लिए स्वतंत्र होना चाहिए।
मेहता ने कहा, रिश्वतखोरी कभी भी छूट का विषय नहीं हो सकती जब तक कि 1000 में से एक भी मामला (रिश्वतखोरी का) सदन के अंदर न हो। मेहता ने अदालत से संविधान के अनुच्छेद 105 के तहत छूट के पहलू पर नहीं जाने का आग्रह किया। उन्हाेंने कहा, रिश्वत का अपराध तब पूरा होता है जब रिश्वत दी जाती है और माननीय उसे स्वीकार कर लेते हैं। इससे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत निपटा जा सकता है।
1998 के निर्णय में न तो बहुमत वाले जजों ने और न ही अल्पमत वाले जजों ने इस दृष्टिकोण से मुद्दे की जांच की। संक्षिप्त प्रश्न, जिस पर वर्तमान संदर्भ आधारित है, वह यह है कि क्या सदन के बाहर रिश्वतखोरी का अपराध पूर्ण है। यदि ऐसा है, तो इस अदालत को छूट के सवाल पर जाने की जरूरत नहीं है। पीठ ने अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणि और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता समेत कई वकीलों की दलीलें सुनने के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया।
संसदीय विशेषाधिकार व्यक्तिगत नहीं व्यावसायिक प्रतिरक्षा
मेहता ने कहा, संसदीय विशेषाधिकार व्यक्तिगत प्रतिरक्षा नहीं बल्कि व्यावसायिक प्रतिरक्षा है जो उन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए प्रदान की जाती है कि प्रतिनिधियों के कर्तव्यों को पूरी तरह से पूरा किया जा सके। इस छूट का मतलब किसी संसद सदस्य को कानून से ऊपर रखना नहीं है, बल्कि उसे संभावित आधारहीन कार्यवाही या आरोपों से बचाना है जो राजनीति से प्रेरित भी हो सकते हैं।
अब तक कई फैसलों में स्पष्ट था कि किसी को भी आपराधिक अभियोजन से सुरक्षा प्राप्त नहीं।
वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन ने कई निर्णयों का उल्लेख किया और कहा कि सभी में सुसंगत बिंदु यह था कि किसी को भी आपराधिक अभियोजन के खिलाफ सुरक्षा प्राप्त नहीं है। माननीयों को छूट की जरूरत है क्योंकि उन्हें अक्सर सदन के अंदर उनके कृत्यों के लिए निशाना बनाया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट को यह सुनिश्चित करने के लिए सावधान रहना होगा कि माननीयों को वह छूट मिले जो संविधान चाहता है। हमें किसी प्रकार का सूत्रीकरण या परीक्षण करना होगा जिसके आधार पर हम दी जाने योग्य प्रतिरक्षा का निर्धारण कर सकें।
क्या है मामला?
बता दें कि झामुमो प्रमुख शिबू सोरेन और उनकी पार्टी के चार सांसदों पर आरोप लगा था कि 2012 के राज्यसभा चुनाव के दौरान उन्होंने विशेष उम्मीदवार को वोट देने के बदले रिश्वत ली थी। इस मामले में सीबीआई ने मामला दर्ज किया था लेकिन शिबू सोरेने की बहू और मामले में आरोपी सीता सोरेन ने हाईकोर्ट में याचिका दायर कर 1998 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया, जिसके बाद हाईकोर्ट ने झामुमो सांसदों के खिलाफ दर्ज मामले को खारिज कर दिया था।