ब्लिट्ज ब्यूरो
मुंबई। बॉम्बे हाई कोर्ट ने कहा है कि मां बनना एक नैसर्गिक घटना है, ऐसे में नियोक्ता का रुख महिला की मैटरनिटी लीव को लेकर सहानुभूतिपूर्ण होना चाहिए। हाई कोर्ट ने यह बात एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया (एएआई) में कार्यरत एक महिला को राहत देते हुए कही है।
एएआई ने महिला को इस आधार पर मैटरनिटी लीव देने से इनकार कर दिया था, क्योंकि पहले से उसके दो बच्चे हैं। कोर्ट ने कहा कि मैटरनिटी लीव का उद्देश्य एक महिला को सुरक्षा प्रदान करना है। सुरक्षा के पहलू को उसके स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए और इस लीव से जुड़े नियमों की उदारतापूर्ण व्याख्या की जानी चाहिए।
सम्मानजनक व्यवहार किया जाए
जस्टिस ए.एस. चांदुरकर और जस्टिस जितेंद्र जैन की बेंच ने कहा कि महिलाएं हमारे देश की आबादी और समाज का आधा हिस्सा हैं। लिहाजा उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार किया जाना चाहिए। खासतौर से ऐसे स्थान पर, जहां महिलाएं जीविका अर्जित करने के लिए नौकरी करती हैं। महिलाओं को वे सभी सुविधाएं प्रदान की जानी चाहिए, जिनकी वे हकदार हैं। फिर भले ही उनकी ड्यूटी का स्वरूप किसी भी तरह का क्यों न हो।
अनुच्छेद-21 का महत्वपूर्ण पहलू
बेंच ने कहा कि बच्चे को जन्म देना और उसका पालन-पोषण करना संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत मिले जीवन के अधिकार का महत्वपूर्ण पहलू है। इस लिहाज़ से नियोक्ता को मैटरनिटी लीव को लेकर विचारशील होना चाहिए। संविधान के अनुच्छेद-42 में भी मैटरनिटी लीव की सुरक्षा को लेकर प्रावधान किया गया है।
‘मैटरनिटी लीव का उद्देश्य जनसंख्या नियंत्रण नहीं’
नियमों के अनुसार मैटरनिटी लीव का उद्देश्य महिला को छुट्टियों का लाभ देना है, न कि जनसंख्या पर अंकुश लगाना। दो बार मैटरनिटी लीव देने का नियम इसलिए बनाया गया है ताकि नियोक्ता कर्मचारी की सेवा से दो से अधिक बार वंचित न हो।
बेंच ने कहा कि मामले से जुड़ी महिला कर्मचारी को जब पहला बच्चा हुआ था, तो उसने मैटरनिटी लीव का लाभ नहीं उठाया था। ऐसे में, वह तीसरे बच्चे की डिलिवरी के दौरान मैटरनिटी लीव के लिए पात्र थी।
बेंच ने आगे कहा कि अदालत की भूमिका समाज में कानून को समझना और उसे हासिल करने में मदद करने की है। इसलिए जब सामाजिक परिस्थितियां बदलती हैं, तो कानून को भी बदलना होगा।