दीपक द्विवेदी
पेरिस ओलंपिक्स में भारत के 117 खिलाड़ी विभिन्न स्पर्धाओं में भाग लेने के लिए गए थे। इनमें से अनेक खिलाड़ी तो ऐसे थे जिनसे भारत और उसके नागरिकों को न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ खेल के प्रदर्शन की उम्मीद थी बल्कि उनके गोल्ड मेडल जीत कर आने का भी पूर्ण विश्वास था। अनेक खिलाड़ियों ने बेहतर खेल का प्रदर्शन पेरिस ओलंपिक्स में किया भी किंतु अंत में किसी न किसी कारण से वे पदक से चूक गए, अथवा वे अपने खेल की सर्वश्रेष्ठता को पदक पाने की दहलीज तक बरकरार नहीं रख सके। यह हमारे लिए दुर्भाग्य की बात के साथ-साथ उतना ही चिंतन का विषय भी है कि हम दो अंकों में मेडल भी नहीं जीत सके जबकि हमारे पास इतनी बड़ी टीम में दुनिया के अनेक टॉप और दमदार खिलाड़ी मौजूद थे। सबसे बड़े दुख एवं निराशा की बात तो यह रही कि भारत पेरिस ओलंपिक्स में एक भी गोल्ड मेडल नहीं जीत सका।
खेलों के इस महाकुंभ में भारत को तब बड़ा झटका लगा जब युई सुसाकी जैसी महान खिलाड़ी को शिकस्त देने के बाद विनेश फोगाट को इस स्पर्धा में गोल्ड के लिए सबसे प्रबल दावेदार माना जा रहा था। आखिरी मैच से पहले जब उनका वजन हुआ तो वह 100 ग्राम अधिक निकला और उन्हें मैच के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया। दरअसल देश के लिए मेडल जीतने वाले खिलाड़ी की मेहनत अकेले ही रंग नहीं लाती बल्कि उनके पीछे पसीना बहाने वाले सहयोगी स्टाफ की भी अहम भूमिका होती है। इसीलिए इस बार 140 सदस्यीय सपोर्ट स्टाफ का दल पेरिस में खिलाड़ियों के साथ भेजा गया था जिसे लेकर काफी हाय-तौबा भी मची थी। शायद यह सपोर्ट स्टाफ भी देश का सम्मान बढ़ाने में अपनी भूमिका समुचित ढंग से नहीं निभा पाया। विनेश का वजन बढ़ने के मामले में सपोर्ट स्टाफ भी सवालों के घेरे में है कि आखिर वह अपना दायित्व निभाने में क्यों विफल हो गया ? अब यह सारा विवाद तो जांच का विषय बन चुका है लेकिन इस सब से देश को जो महती हानि उठानी पड़ी, वह शर्मनाक है; इसमें कोई दो राय नहीं। साथ ही उसकी भरपाई भी किसी सूरत में नहीं की जा सकती।
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय खिलाड़ियों में दम है। पेरिस ओलंपिक में इनके प्रदर्शन को देखते हुए लगता है कि भारतीय खिलाड़ी फिर से अपनी पुरानी चमक हासिल कर रहे हैं। भविष्य में भी उनका प्रदर्शन अच्छा बना रह सकता है। पेरिस ओलंपिक 2024 भारत के लिए काफी मिला-जुला रहा। भारतीय एथलीट्स ने यहां कुल 6 मेडल जीते। इन 6 में से 5 ब्रॉन्ज और 1 सिल्वर मेडल है। सिल्वर मेडल नीरज चोपड़ा ने जेवलिन थ्रो में जीता। इससे पहले टोक्यो में हुए ओलंपिक में भारत के खाते में 1 गोल्ड मेडल आया था। यह कितने अफसोस की बात है कि 140 करोड़ से अधिक की आबादी वाले इस देश में इस बार एक भी सूरमा ऐसा नहीं निकला जो कम से कम एक स्वर्ण पदक तो भारत की झोली में डाल देता जबकि हमसे बहुत छोटे देश भी हर बार गोल्ड मेडल जीतने में कामयाब रहते हैं।
पेरिस ओलंपिक यह सीख भी दे रहा है कि अब भारत को आत्मनिरीक्षण की सख्त जरूरत है। आज भारत जब ओलंपिक खेलों की मेजबानी की बात करता है तो उसके पास ऐसे जज्बे वाले खिलाड़ी भी होने चाहिए जो कम से कम भारत में ओलंपिक का आयोजन होने पर पदक तालिका में शीर्ष पांच देशों में स्थान दिलाने का दम-खम तो रखते हों। अत: केंद्र व राज्य सरकारों को चाहिए कि वे अब ऐसी खेल नीतियां बनाएं जिनमें बिना किसी भेदभाव के देश में हर ऐसी प्रतिभा को खेलों से संबद्ध हर वो उच्चस्तरीय सुविधाएं निशुल्क उपलब्ध हों जो उन्हें अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में गोल्ड मेडल हासिल करने के लक्ष्य के लिए तैयार कर सकें। इसके साथ ही खिलाड़ियों को भी यह मानसिकता अपनानी होगी कि वे किसी भी प्रतिस्पर्धा में सिर्फ गोल्ड मेडल पाने के लिए ही उतरें; न कि मात्र मेडल हासिल करने के लिए।
वस्तुत: ओलंपिक तक पहुंचना कितना कठिन काम होता है, यह सिर्फ वही खिलाड़ी जान सकता है जो इस कामयाबी को हासिल करता है। इसलिए खिलाड़ियों के साथ जाने वाले सपोर्ट स्टाफ का भी उतना ही दायित्व बनता है कि वे हमारे धुरंधर खिलाड़ियों का दम-खम एवं फिटनेस सर्वोच्च सफलता पाने के लिए मुकाबले के अंत तक बरकरार रखें। अगर भारत को मेडल की संख्या बढ़ानी है तो उसे ओलंपिक समेत आगे आने वाली तमाम अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के लिए अपनी तैयारी भी वैसी ही करनी चाहिए। इसके लिए ऐसे दिमागों की आवश्यकता होती है जिनका एकमात्र लक्ष्य तमाम अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में सिर्फ गोल्ड मेडल पाना ही होना चाहिए।