दीपक द्विवेदी
भारतीय मतदाताओं ने नई संसद (लोकसभा) चुनने के लिए 18वें आम चुनाव में अपना फैसला सुना दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी , जिसने 2014 और 2019 के आम चुनावों में अधिकांश सीटें जीती थीं; यद्यपि अपने तीसरे कार्यकाल के लिए वोट मांगने के दौरान अपने दम पर बहुमत हासिल नहीं कर सकी किंतु उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने बहुमत से अधिक सीटें प्राप्त कर के सरकार का गठन कर लिया है। बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) को हराने के लिए, इसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस पार्टी व उसके सहयोगी दलों के इंडी गठबंधन ने भी इस बार बेहतर प्रदर्शन किया है। वहीं इंडी गठबंधन में हो कर भी न होते हुए पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की ममता सरकार में चुनाव के दौरान व चुनाव बाद की हिंसा भारतीय लोकतंत्र के लिए एक दाग के रूप में विद्यमान है।
भारत दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश है, इसलिए आम चुनाव दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक अभ्यास है। 19 अप्रैल से 1 जून तक हुए सात चरणों के चुनावों में 98 करोड़ से अधिक मतदाताओं ने 543 सीटों को भरने के लिए मतदान किया। जाहिर सी बात है कि इतने बड़े पैमाने के चुनाव विभिन्न सुरक्षा चुनौतियों के साथ आते हैं जिनमें धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और साइबर सुरक्षा के सवाल शामिल हैं। भारत सरकार को अंतरराष्ट्रीय संघर्षों, घरेलू विरोधी समूहों और हिंसक राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता से जुड़ी कई और जटिल सुरक्षा चिंताओं के मद्देनजर कड़ी सुरक्षा प्रदान करने की चुनौती का भी सामना करना पड़ता है।
पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव के आखिरी चरण के मतदान और नतीजों की घोषणा के बाद से कई जगहों पर हिंसा की खबरें सामने आई हैं। दावा है कि तब से अब तक 11 लोगों की मौत हो चुकी है। मामले को लेकर कलकत्ता हाईकोर्ट ने बंगाल पुलिस और राज्य की ममता बनर्जी सरकार को फटकार लगाई है। हाईकोर्ट ने चेतावनी दी है अगर राज्य सरकार हिंसा कंट्रोल नहीं कर सकती तो अगले पांच साल तक के लिए वहां केंद्रीय सशस्त्र सुरक्षा बलों को तैनात कर दिया जाएगा।
कोर्ट ने हिंसा से जुड़ी रिपोर्ट्स को लेकर निराशा व चिंता जाहिर की और कहा कि हर दिन हम मीडिया में चुनाव के बाद की हिंसा के बारे में देख रहे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव के बाद जो हुआ, वही इस बार भी हो रहा है। आपको (राज्य को) शर्म आनी चाहिए। कोर्ट ने कहा कि वो किसी भी कीमत पर राज्य के लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहते हैं।
यही नहीं; पश्चिम बंगाल में वोटिंग के दौरान ईवीएम को तालाब में फेंक दिया गया था। अगस्त 2021 में भी विधानसभा चुनाव परिणामों के बाद राज्य में हिंसा हुई थी। तब हाईकोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने एसआईटी के गठन का आदेश दिया था ताकि चुनाव के बाद हिंसा संबंधी शिकायतों की जांच की निगरानी की जा सके। यह पहली बार नहीं है जब पश्चिम बंगाल की ममता सरकार तीखी आलोचनाओं के घेरे में आई है। अनेक मुद्दों व फैसलों पर कई बार ममता सरकार को बदनामी के आरोपों से रूबरू होना पड़ा है। हाल ही में पश्चिम बंगाल में हाईकोर्ट के आदेश के उपरांत 2010 के बाद मुसलमानों को जारी ओबीसी प्रमाणपत्र निरस्त हो जाने से राज्य की ओबीसी राजनीति में काफी उबाल आ गया था क्योंकि यह फैसला आम चुनावों के दौरान आने से इस पर काफी सियासी घमासान भी देखने को मिला था।
स्पष्ट है कि यह निर्णय ममता सरकार के लिए एक बड़ा राजनीतिक झटका बन गया था। इसके पहले भी उन्हें ऐसा ही झटका कलकत्ता हाईकोर्ट के उस फैसले से लगा था जब हाईकोर्ट ने 25 हजार शिक्षकों एवं स्कूली कर्मचारियों की भर्तियों को निरस्त कर दिया था। इसके अलावा ममता सरकार को कलकत्ता हाईकोर्ट के कुछ अन्य फैसलों से भी झटके लग चुके हैं। इसमें एक मामला संदेशखाली में तृणमूल कांग्रेस के नेता शाहजहां शेख की ओर से जमीनों पर कब्जा और महिलाओं के प्रति अत्याचार से भी जुड़ा था। इस मामले में भी ममता सरकार को हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट की कड़ी फटकार का सामना करना पड़ा था। अभी हाल ही में ममता बनर्जी ने एक अटपटा बयान देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आने से मना कर दिया था। अब अगर मनोनुकूल निर्णय न आने पर सीएम ममता बनर्जी जिस तरह सार्वजनिक तौर पर संविधान सम्मत फैसलों की अवहेलना करती दिख रही हैं, वह किसी भी तौर पर औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। संवैधानिक मूल्यों को ताक पर रखते हुए ममता बनर्जी राजनीतिक कारणों से चुनावी हितों के लिए इस हद तक जाकर बयान दे देती हैं कि वह ओबीसी आरक्षण पर पश्चिम बंगाल हाईकोर्ट के आदेश को नहीं मानेंगी तो इससे संवैधानिक मूल्यों को आघात तो लगेगा ही। साथ ही एक चुनी हुई सरकार अगर चुनाव में हिंसा रोकने में विफल है तो यह भी भारतीय लोकतंत्र के लिए चिंतन का एक गंभीर विषय अवश्य है।