प्रो. प्रभाशंकर शुक्ल | कुलपति, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मेघालय।
आज विश्व की सर्वाधिक बड़ी चुनौतियों में पर्यावरण संतुलन की चुनौती है जो विकास और प्रगति की आधुनिक अवधारणा के अनुरूप प्रकृति और समाज के बीच सम्यक संतुलन स्थापित करने की समस्या से जूझ रही है। प्रत्येक देश अपने प्राकृतिक संसाधनों के आधार पर विश्व में अपनी भूमिका नियत करने के लिए निरंतर प्रयासशील है। इसके लिए विभिन्न प्रकार की वैज्ञानिक प्रगति एवं भौतिक संसाधनों के विकास के माध्यम से वह वैश्विक शक्ति के रूप में अपनी मान्यता स्थापित करने के लिए विकास के नए मानकों को स्पर्श करना चाहता है।
बेहतरीन उपयोग की बड़ी चुनौती
उसके सामने जहां एक ओर विस्तृत आकाश है जो अपने में अनंत रहस्य छिपाए हुए है तो दूसरी ओर विस्तीर्ण पृथ्वी भू-भाग जिसे नियंत्रित कर उसके बेहतरीन उपयोग की बड़ी चुनौती उसके सामने है। वह सर्वत्र अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है। वह आकाश को चीर कर उसके समस्त रहस्यों को जान लेना चाहता है। पृथ्वी को अपने वश में करके उसके गर्भ की समस्त शक्तियों का उपयोग करना चाहता है। समुद्र को नियंत्रित करके उसकी विशालता में अपनी समृद्धि के नए मानकों का निर्माण करना चाहता है।
विकास के नए मानकों को अपनाना ही होगा
वास्तव में विकास के ये नए स्रोत हैं जिनसे आज कोई भी देश बच नहीं सकता। अगर विश्व मानचित्र पर अपनी उपस्थिति दर्ज करानी है, उन्नत और विकसित देश के रूप में अपनी धाक पूरे विश्व में जमानी है तो विकास के इन नए मानकों को अपनाना ही होगा।
जहां तक भारत का प्रश्न है, प्राचीन काल से ही यह प्रकृति-पूजक देश रहा है जहां विकास की उन्हीं प्रविधियों को मान्यता प्रदान की जाती है जो पर्यावरण की संगति के अनुकूल हों। पर्यावरण विरोधी विकास की अवधारणा भारतीय जनमानस और चिंतन में कभी भी पूर्णतः स्वीकृत नहीं रही। इसलिए भारत का अधिकांश क्षेत्र प्राचीन काल से ही ग्रामीण संस्कृति का क्षेत्र रहा क्योंकि इस संस्कृति में प्रकृति अपने स्वाभाविक रूप में विद्यमान रहती है। विकास के जो मानक निर्मित होते हैं, वे प्रकृति के अनुरूप ही विकसित होते हैं और प्रकृति के साथ-साथ मनुष्य उन्हीं तत्वों को समायोजित करने की कोशिश करता है जिससे प्रकृति पर कोई प्रतिकूल असर न पड़े।
वेदों की मूल चेतना
वेदों की मूल चेतना में सार्वभौम, अखण्ड प्रकृति-तत्व की आस्था सर्वत्र अनुस्यूत है। अथर्ववेद के ‘आप: सूक्त’, ‘भूमि-सूक्त’ आदि स्थानों पर प्रकृति की अनंत शक्ति की प्रार्थना विश्व की अनमोल विरासत है। ‘भूमि-सूक्त’ में माता पृथ्वी की प्रार्थना करते हुए उसे जीवन-धात्री कहा गया है:
यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टयः संबभूवुः।
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत्सा नो भूमिः पूर्वपेये दधातु ।।
‘अर्थात : माता पृथ्वी को नमस्कार ; उसमें सागर और नदी का जल एक साथ बुना हुआ है; उसी में अन्न समाया हुआ है जिसे वह हल चलाने पर प्रकट करती है; सचमुच उसी में सभी जीवन जीवित हैं; वह हमें जीवन प्रदान करें।’
अथर्ववेद में पृथ्वी
अथर्ववेद में पृथ्वी को अपने में सम्पूर्ण सम्पदा प्रतिष्ठित कर, विश्व के समस्त जीवों का भरण-पोषण करने वाली कहा गया है: ‘विश्वम्भरा वसुधानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतों निवेशनी’। इसी जीवन-दृष्टि का परिणाम है कि प्राचीन काल से ही भारत कृषि-प्रधान देश रहा है। यद्यपि समय के साथ-साथ भारतीय विकास की इस अवधारणा में पर्याप्त परिवर्तन भी आये हैं और विकास के ‘पश्चिमी मॉडल’ को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया जाने लगा है, बावजूद इसके अभी भी प्रकृति की पूजा भारत की सांस्कृतिक जन-चेतना और जीवन-दृष्टि का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
कृषि ही यहां की आजीविका का प्रमुख साधन
कृषि ही यहां की आजीविका का प्रमुख साधन था और उसी के संतुलन के साथ आधुनिकता और नगरीकरण के नए मानकों की खोज इसकी विशेषता रही है। आधुनिकता के विस्तार और आर्थिकी के नए पैमानों के आधारों पर भारत में भी पर्यावरण और प्रकृति को लेकर नई तरह की सोच विकसित हुई है जिसमें बड़े-बड़े शहरों की स्थापना, ऊंचे और चौड़े राजमार्गों का निर्माण एवं प्रकृति को नियंत्रित करके उसके विशिष्ट दोहन की प्रवृत्ति विद्यमान है। आज के दौर में प्रकृति और विकास के बीच संतुलन स्थापित करना बहुत ही मुश्किल और जटिल प्रश्न है जिससे विश्व के अधिकांश देश जूझ रहे हैं। उन्हें आगे भी बढ़ना है, अपनी शक्ति का विकास भी करना है और बढ़ती हुई जनसंख्या को आजीविका एवं अच्छे जीवन की सुविधा भी उपलब्ध करानी है।
प्रकृति को बचाकर भी रखना है
साथ ही प्रकृति को बचाकर भी रखना है। प्रकृति और विकास के बीच इस संतुलन को जो जितना अधिक साध पायेगा, उस देश की पारिस्थितिकी निश्चित रूप से अधिक बेहतर होगी और वह देश मानविकी के क्षेत्र में सम्यक विकास कर पायेगा।
प्रकृति और विकास के बीच इस खींचातानी के दौर में हम सब आज प्राकृतिक परिवर्तन के विभिन्न खतरों को झेल रहे हैं। पर्यावरण असंतुलन से जहां एक ओर पूरे विश्व का तापमान अनियंत्रित हो रहा है, वहीं दूसरी ओर अतिवृष्टि, अनावृष्टि के खतरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं। वायुमंडल में प्रदूषित गैसों की निरन्तर वृद्धि पूरे विश्व के लिए चिंता का विषय बनी हुई है।
खनिज सामग्रियों का अनियंत्रित दोहन
खनिज सामग्रियों के अनियंत्रित दोहन एवं वैज्ञानिक प्रगति की अविवेकपूर्ण गति ने हमारी चिंता और भी बढ़ा दी है। हमें समझ में नहीं आ रहा है कि हम कितना आगे बढ़ रहे हैं अथवा कितने पीछे खुद को धकेलते जा रहे हैं। सीमित समयावधि के लिए भले ही हमारा जीवन अधिक सुविधा संपन्न हो जाए, परंतु लंबी कालावधि में हम कितनी तरह की समस्याओं को पैदा कर रहे हैं, इस पर आज चिंता करने की बड़ी आवश्यकता है।
पूर्वोत्तर की पूंजी
जहां तक भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र का प्रश्न है, यह पूरा परिक्षेत्र अपनी सांस्कृतिक एवं भाषायी विरासत में ही विशिष्ट नहीं है बल्कि पर्यावरण संतुलन एवं पारिस्थितिकी निर्माण में भी यह पूरे विश्व में अनूठा माना जाता है। पूर्वोत्तर भारत का अधिकांश हिस्सा पर्वतीय है जिसमें एक ओर सिक्कि म और अरुणाचल प्रदेश की ऊंची-ऊंची बर्फ से ढकी पर्वतीय चोटियां हैं तो दूसरी ओर हरे-भरे पठारी पहाड़ और वर्षभर जल से आपूरित विशाल नदियां जो अपनी निर्मित में अति विशिष्ट हैं। इसमें जहां एक ओर विश्व की सर्वाधिक वर्षा वाला क्षेत्र चेरापूंजी है तो दूसरी ओर ऐसे परिक्षेत्र भी हैं जो निरंतर प्राकृतिक विभीषिका झेलते रहते हैं।
2,62,184 वर्ग किमी क्षेत्र
भारत का यह पूर्वोत्तर क्षेत्र लगभग 2,62,184 वर्ग किलोमीटर तक विस्तृत है जिसका 64.66 प्रतिशत भूमि वनों से आच्छादित है। यह भारत के कुल वन क्षेत्र का लगभग 8 प्रतिशत है | यहां 15 से अधिक बड़ी नदियां हैं और कई सौ छोटी नदियां, झील और जल-स्रोत हैं। केवल ब्रह्मपुत्र नदी से जुड़ी हुई लगभग 100 सहायक नदियों से पूरी ब्रह्मपुत्र-घाटी जल-संपन्न भू-भाग के रूप में जानी जाती है।
जंगल की समृद्धि
पूर्वोत्तर राज्यों में जंगल परिक्षेत्र का प्रतिशत पूरे देश में सर्वाधिक है। मिजोरम में जहां 84.53 प्रतिशत भूमि वनों से आच्छादित हैं, वहीं अरुणाचल प्रदेश में 79.33 प्रतिशत, मेघालय में 76 प्रतिशत, मणिपुर में 74.34 प्रतिशत और नगालैंड में 73.90 प्रतिशत भू-भाग वनों से आच्छादित है। जारी …