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नई दिल्ली। कई मिथक, अवधारणाएं, दंभ और कई भ्रम तोड़ते हुए फिल्म ‘द केरल स्टोरी’ बाॅक्स ऑफिस पर कामयाबी के कीर्तिमान बना रही है। फिल्म विश्लेषकों की पोल खुली कि उनकी निगेटिव समीक्षा से फिल्म पिट सकती है। एक खास क्रिटिक वर्ग ने इस फिल्म के विषय, कथानक, उद्देश्य व इंपैक्ट को लेकर जमकर नकारात्मक समीक्षा की थी। यह मिथक भी टूटा कि लो बजट और नए कलाकारों के साथ फिल्म हिट नहीं हो सकती।
तमिलनाडु व बंगाल ने फिल्म पर रोक लगा कर ‘दंभ’ दिखाया। बंगाल में चार दिन स्क्रीनिंग के बाद बैन लगाया गया। इससे नागरिक समाज विभाजित हो गया है। लोग तीन तार्किक आधारों का हवाला देते हैं – पहला, उस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का क्या औचित्य है, जिसे सेंसर बोर्ड से मंजूरी मिल गई है, दूसरा, ओटीटी के युग में प्रतिबंध की प्रभावशीलता क्या है, जल्द ही फिल्म ओटीटी प्लेटफॉर्म पर उपलब्ध होगी और तीसरा, फिल्म पर बैन लगाकर सरकार ने इसके प्रति क्रेज बढ़ा दिया है। तमिलनाडु व बंगाल में बैन के खिलाफ ‘द केरल स्टोरी’ के निर्माता ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और मामले की जल्द सुनवाई की मांग की गई है।
उनका तर्क है कि सेंसर बोर्ड की मंजूरी के बाद राज्यों में बैन क्यों लगाया गया। एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (एपीडीआर) के महासचिव रंजीत सूर के मुताबिक बंगाल में चार दिनों तक फिल्म की स्क्रीनिंग हुई लेकिन कानून और व्यवस्था खराब होने की एक भी रिपोर्ट नहीं आई।
ममता के करीबी बैन से असहमत
जाने-माने चित्रकार सुभाप्रसन्ना, जो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के बेहद करीबी माने जाते हैं, फिल्म पर प्रतिबंध लगाने के राज्य सरकार के तर्क से असहमत हैं। उनके अनुसार वे हमेशा किसी भी रचनात्मक कार्य के खिलाफ जबरन विरोध के खिलाफ रहे हैं। उन्होंने कहा कि जब सेंसर बोर्ड ने फिल्म के प्रदर्शन को हरी झंडी दे दी है तो उन्हें राज्य सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध पर कोई तर्क नजर नहीं आता।
‘द केरल स्टोरी’ ने इस अवधारणा को भी गलत साबित किया कि राजनीतिक दलों, सरकारों के चाहने या न चाहने पर निर्भर होता है फिल्म का भविष्य। फिल्म पर पहला और अंतिम फैसला जनता जनार्दन का ही होता है। इस फिल्म को जनता ने दिल और आत्मा से हाथों हाथ लिया है।