दीपक द्विवेदी
भारत में हो रहे लोकसभा के आम चुनाव में अधिकतर सीटों पर महिला वोटर्स का रुख निर्णायक हो सकता है। अनेक स्थानों पर महिला वोटर्स के इस बार जीत का सूत्रधार बनने की बातें भी कही जा रही हैं क्योंकि चुनावी इतिहास में पहली बार बड़ी संख्या में महिला वोटर्स हिस्सा ले रही हैं। अब तक कुल 96.88 करोड़ मतदाता रजिस्टर हुए हैं जिनमें महिला वोटर्स की संख्या रिकॉर्ड 47.1 करोड़ तक पहुंच गई है पर चुनावों में अभी तक उनकी उम्मीदवारी एवं मतदान में भागीदारी; दोनों ही चिंताजनक स्थिति में हैं।
लोकसभा चुनाव के तीन चरण का मतदान हो चुका है। बाकी चरणों के मतदान के लिए विभिन्न पार्टियां रणनीति बनाने में जुटी हुई हैं। इसी बीच राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने को लेकर दलों द्वारा किए जा रहे तमाम दावे खोखले नजर आ रहे हैं। लोकसभा चुनाव के पहले तीन चरणों में इसका उदाहरण देखने को मिला। शुरुआती दो चरणों में 2,823 उम्मीदवारों में से केवल 235 यानी आठ प्रतिशत महिला उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा। राजनीतिक विश्लेषक इस पर गहरी चिंता जता रहे हैं। महिलाओं को सबसे ज्यादा टिकट भारतीय जनता पार्टी ने दिए हैं। चुनाव के पहले चरण में कुल उम्मीदवारों की संख्या 1625 थी जिनमें 135 महिला उम्मीदवार थीं जबकि दूसरे चरण में 1198 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और इनमें मात्र 100 महिला उम्मीदवार ही चुनाव मैदान में थीं। पहले चरण में 135 महिला उम्मीदवारों में से तमिलनाडु की हिस्सेदारी सबसे अधिक 76 थी। हालांकि यह आंकड़ा राज्य के कुल उम्मीदवारों का सिर्फ आठ प्रतिशत था। दूसरे चरण में केरल में महिला उम्मीदवारों की संख्या सबसे अधिक 24 थी। दोनों चरणों में भाजपा की तरफ से महिला उम्मीदवारों का प्रतिनिधित्व ज्यादा देखने को मिला। भाजपा ने जहां 69 महिलाओं को मैदान में उतारा वहीं कांग्रेस ने शुरुआती दोनों चरणों में 44 महिलाओं को ही मौके दिए। लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण की हालत भी कुछ खास उत्साहवर्धक नहीं रही। इस चरण में कुल 1352 उम्मीदवारों की चुनावी किस्मत दांव पर लगी हुई थी। इन उम्मीदवारों में सिर्फ 123 महिला प्रत्याशी शामिल रहीं। यह संख्या तीसरे चरण के कुल उम्मीदवारों का केवल 9 फीसदी रही। महिला प्रत्याशियों की कम संख्या चिंताजनक स्थिति को ही दर्शाती है।
कमोबेश इसी तरह की सूरत मतदान करने वाली महिलाओं की भी है। वोटिंग के प्रति भी उनकी उदासीनता चिंताजनक स्थितियों की ओर ही इशारा करती है जबकि तमाम राजनीतिक दलों द्वारा महिला मतदताओं को रिझाने के लिए अनेक लुभावने वादे किए गए हैं। कुछ माह पूर्व हुए राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में सत्तासीन हुई भाजपा की बड़ी जीत में महिला वोटर्स का बड़ा योगदान रहा था। ऐसे में देश में आधी आबादी की बढ़ी संख्या को देखते हुए सभी पार्टियों ने लोकसभा चुनाव में महिला वोटर्स को साधने के लिए कवायद शुरू कर दी है। आगामी लोकसभा चुनाव में सबसे अधिक संख्या में महिलाएं मतदाता के रूप में पंजीकृत हुई हैं। चुनाव आयोग के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, लोकसभा चुनाव के लिए मतदाता सूची में 2.63 करोड़ से अधिक नए मतदाताओं को शामिल किया गया है जिनमें से लगभग 1.41 करोड़ महिला मतदाता हैं जो नए नामांकित पुरुष मतदाताओं (1.22 करोड़) से 15 फीसदी अधिक हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने भी पिछले कुछ महीनों में महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए कई अहम फैसले किए हैं। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण देने वाला महिला आरक्षण विधेयक संसद में पारित किया गया। मुफ्त एलपीजी सिलेंडर दिए गए, अंतरिम बजट 2024-25 में लैंगिक बजट में 38.6 फीसदी की बढ़ोतरी की गई। लखपति दीदी का लक्ष्य 2 करोड़ से बढ़ाकर 3 करोड़ कर दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने भी महिला सशक्तिकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन (एससीबीए) के चुनाव में एक तिहाई महिला आरक्षण लागू करने का आदेश दिया है। यह व्यवस्था वर्ष 2024 के चुनावों से ही प्रभावी होगी। यही नहीं 2024-25 के आगामी चुनावों में एससीबीए के कोषाध्यक्ष का पद भी एक महिला उम्मीदवार के लिए आरक्षित किया जाएगा।
फिर भी राजनीतिक दलों को महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देने के लिए और ठोस कदम उठाने चाहिए। भारत के मतदाताओं में लगभग आधी महिलाएं हैं फिर भी राजनीति में उनका कम प्रतिनिधित्व कई सवाल खड़े करता है। राजनीति में इस लैंगिक असंतुलन पर राजनीतिक विश्लेषकों का मत है कि दलों को महिला आरक्षण अधिनियम के लागू होने का इंतजार न कर सक्रिय रूप से महिलाओं को मैदान में उतारना चाहिए और उन्हें वोटिंग के लिए भी प्रोत्साहित करना चाहिए।



















