तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सांसद महुआ मोइत्रा की लोकसभा की सदस्यता रद्द कर दी गई। उन्हें ‘कैश फॉर क्वेरी’ मामले में दोषी पाया गया है। एथिक्स कमेटी यानि कि आचार समिति की रिपोर्ट की सिफारिश के आधार पर उन्हें संसद से निष्कासित कर दिया गया है लेकिन इस पर हंगामा हो गया। सदन की कार्यवाही के स्थगन के बाद जब कार्यवाही दोबारा शुरू हुई तो लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने रिपोर्ट पर चर्चा के लिए महज आधे घंटे का समय दिया। आधे घंटे की चर्चा के बाद ध्वनिमत से रिपोर्ट की सिफारिश मान ली गई और महुआ मोइत्रा की सदस्यता रद्द हो गई।
विपक्ष के सदस्यों ने चर्चा के लिए और समय की मांग की थी क्योंकि एथिक्स कमेटी की रिपोर्ट 495 पन्नों की थी। लोकसभा स्पीकर ओम बिरला ने कहा कि मैं महुआ मोइत्रा पर एथिक्स कमेटी रिपोर्ट पर आधे घंटे की चर्चा करने की ही अनुमति देता हूं क्योंकि इस रिपोर्ट में साफ तौर पर लिखा है कि किस तरह महुआ ने अपना संसदीय लॉगइन आईडी और पासवर्ड किसी और को दे दिया। इसलिए प्रस्ताव पर चर्चा एकदम ठीक समय पर की जा रही है। तृणमूल कांग्रेस और अन्य विपक्षी सांसदों ने मांग की कि महुआ मोइत्रा को सदन में बोलने का मौका दिया जाए जिसे स्पीकर बिरला ने खारिज कर दिया। लोकसभा अध्यक्ष बिरला ने 2005 के एक मामले का उदाहरण देते हुए कहा कि तत्कालीन लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने 10 लोकसभा सांसदों की सदस्यता रद्द करने के निर्देश दिए थे। ये सांसद भी ‘कैश फॉर क्वेरी’ मामले में शामिल थे। इस बीच जोशी ने कहा कि 2005 में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने खुद इन 10 सांसदों की सदस्यता रद्द करने के लिए प्रस्ताव पेश किया था और उन्हें भी बोलने का अवसर नहीं दिया गया था। ऐसे में लोकसभा अध्यक्ष ने आचार समिति की सिफारिशों पर महुआ मोइत्रा को सदन में बोलने से रोक दिया। जो भी किया गया संभवत: वह सदन की परंपरानुसार ही किया गया। उनका यह कथन भी उचित ही प्रतीत होता है कि कई बार ऐसे मौके आते हैं जब उचित निर्णय लेने पड़ते हैं। सदन उच्च मर्यादाओं से चलता है। यह सर्वोच्च पीठ है। यह सदन का सामूहिक कर्तव्य है कि वह ऐसे कदम उठाए जिससे सदन की गरिमा को बनाए रखा जा सके।
दरअसल यह पूरा मामला तब सामने आया जब बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे ने लोकसभा स्पीकर ओम बिरला को चिट्ठी लिखकर यह दावा किया कि महुआ मोइत्रा ने कारोबारी दर्शन हीरानंदानी से पैसे और गिफ्ट लेकर संसद में सवाल पूछे थे। दुबे ने कहा था कि महुआ मोइत्रा ने संसद में अब तक 61 सवाल पूछे हैं जिनमें से 50 अडाणी ग्रुप से जुड़े थे। उनका आरोप था कि मोइत्रा ने ऐसे सवाल पूछकर कारोबारी दर्शन हीरानंदानी के हितों की रक्षा कर आपराधिक साजिश रची।
निशिकांत दुबे ने यह दावा एडवोकेट जय अनंत देहरदई की रिसर्च के आधार पर किया था। इतना ही नहीं, दुबे ने ये सवाल भी उठाया था कि इस बात की भी जांच की जानी चाहिए कि क्या महुआ मोइत्रा ने हीरानंदानी और हीरानंदानी ग्रुप को लोकसभा वेबसाइट के लिए अपने लॉगइन क्रेडेंशियल दिए थे? ताकि वो इसका इस्तेमाल अपने निजी फायदे के लिए कर सकें। इस सब के बीच एथिक्स कमेटी को दिया गया हीरानंदानी का एफिडेविट भी सामने आ गया था। इस हलफनामे में हीरानंदानी ने कबूल किया था कि महुआ ने उनके साथ अपनी संसदीय लॉग इन आईडी और पासवर्ड शेयर किया था जिससे वो (हीरानंदानी) महुआ की तरफ से सवाल कर सकें। स्वयं महुआ ने भी एक पत्रिका को दिए इंटरव्यू में बताया था कि उन्होंने अपना लॉगइन आईडी दर्शन को दिया था। हालांकि, महुआ ने ये भी कहा था कि सवालों को टाइप करने के बाद मेरे मोबाइल पर एक ओटीपी आता था। मेरे ओटीपी देने के बाद ही सवाल सब्मिट होता था। इसलिए यह कहना कि दर्शन मेरी आईडी से लॉगइन करता था और खुद से सवाल टाइप करता था ये हास्यास्पद है।
हालांकि अब सवाल यह है कि क्या कोई सांसद या विधायक अपना लॉगइन आईडी किसी बाहरी व्यक्ति को दे सकता है और क्या यह देश की गोपनीयता को खतरे में डालना एवं संसद अथवा विधायिका की गरिमा को भंग करना नहीं है? संसद की आचार समिति की रिपोर्ट में भी पैसे लेकर सवाल पूछने के मामले में टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा को गंभीर रूप से गलत आचरण के लिए दंड देने की मांग की गई थी और 17वीं लोकसभा की सदस्यता से निष्कासित करने की भी सिफारिश की गई थी। संसद की आचार समिति की सिफारिशों के आधार पर ही संसद में पैसा लेकर सवाल पूछने के मामले में तृणमूल सांसद के संसद से निष्कासन का निर्णय हुआ। अब इस प्रकरण से यह संदेश साफ है कि कोई भी सांसद संसद की गरिमा के साथ समझौता नहीं कर सकता क्योंकि यह मामला संसदीय शुचिता से भी जुड़ा है।
सवाल एक सांसद की विश्वसनीयता का भी है। एक जनप्रतिनिधि के तौर पर एक सांसद के कुछ कर्तव्य होते हैं। इन कर्तव्यों के निर्वहन में उससे ईमानदारी बरतने की आशा भी की जाती है। एक सांसद के रूप में मिलने वाली शक्तियों को तदर्थ रूप से किसी बाहरी व्यक्ति को सौंपा नहीं जा सकता क्योंकि वह वस्तुत: विधायिका की शक्तियां होती हैं। अत: संसदीय परंपराओं की सर्वोच्चता एवं गरिमा को बरकरार रखने के लिए कड़े कदम और फैसले लिए जाना सर्वथा उचित है। ऐसा नहीं होने पर संसद ही नहीं, देश की सुरक्षा भी खतरे में पड़ सकती है।