प्रो. प्रभाशंकर शुक्ल कुलपति, पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग, मेघालय।
गतांक का शेष भाग
पूर्वोत्तर भारत में 17 राष्ट्रीय उद्यान हैं जिन्हें संरक्षित वन-भूमि के रूप में देखा जा सकता है जिसकी जैव-विविधता पर्यावरण संतुलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है।
जैव विविधता की दृष्टि से पूरा परिक्षेत्र अत्यंत समृद्ध
जैव विविधता की दृष्टि से यह पूरा परिक्षेत्र अत्यंत समृद्ध है । प्राकृतिक रूप में कोयला, तेल, गैस, लोहा, जिंक, यूरेनियम आदि खनिज पदार्थ यहां बहुतायत में पाये जाते हैं । मेघालय का खासी-गारो-जयंतिया पहाड़ी परिक्षेत्र और ब्रह्मपुत्र घाटी जैव विविधता की दृष्टि से अत्यंत विशिष्ट मानी जाती है।
स्पष्ट है कि अपनी समृद्ध प्राकृतिक विरासत के चलते यह पूरा क्षेत्र विश्व में पर्यावरण संतुलन का अद्भुत नमूना माना जाता है। प्रकृति ने अपने सौंदर्य का पूरा संभार यहां प्रस्तुत किया है। परंतु विशेष बात यह है कि यह प्राकृतिक संपदा पूर्वोत्तर भारत में अभी भी अधिकांशत: अपने प्राकृतिक रूप में विद्यमान है और इसमें बहुत कम विचलन या विकृति दिखलाई देती है। निश्चित रूप से इसके पीछे इस भूभाग में निवास करने वाले लोगों की मानसिक बनावट, जीवन-शैली और रहन-सहन का विशेष योगदान है | हम सब जानते हैं कि संस्कृति हमारे जीवन निर्वाह के नये-नये तौर-तरीकों का निर्माण करती है, वहीं हमें जीवन को जीने की नई-नई विधियां सिखाती हैं और उसी के माध्यम से हम अपने जीवन और समाज को आगे बढ़ाने के नियम निर्धारित करते हैं।
प्रकृति से है तालमेल
पूर्वोत्तर भारत की प्राकृतिक सम्पन्नता और उसकी सुंदरता यहां के जनजातीय जीवन की परंपरा, रीति-रिवाज, रहन-सहन, खान-पान और लोक-व्यवहार पर निर्भर है। यहां के लोगों का जीवन प्रकृति आधारित जीवन है। वह अपने को प्रकृति के अनुरूप ढालते हैं न कि प्रकृति को अपने अनुरूप। प्रकृति वहां मूल में है, वह एक जीवंत सत्ता है जो प्रसन्न होती है तो जीवन संपन्न होता है और जो रूठती है तो जीवन में रोज नई-नई विपत्तियां, नये-नये कष्ट उत्पन्न होते हैं। निश्चित रूप से प्रकृति की इस जीवंत सत्ता को स्वीकार करने के कारण उसके प्रति यहां के जनजातीय लोगों के व्यवहार में उसी के अनुरूप परिवर्तन होता है। जनजातीय जीवन पद्धति के कारण उनमें शहरी जीवन के प्रति आस्था उतनी नहीं है, जितनी प्राकृतिक परिवेश में अपने को स्थापित करने की। यही कारण है कि भारत के सर्वाधिक कम शहरी क्षेत्र के रूप में इन पूर्वोत्तर प्रदेशों की गणना होती है।
केवल 18 प्रतिशत जनसंख्या छोटे बड़े कस्बेनुमा 414 शहरों में
एक आंकड़े के अनुसार पूर्वोत्तर प्रदेशों की केवल 18 प्रतिशत जनसंख्या छोटे बड़े कस्बेनुमा 414 शहरों में बसती है। केवल गुवाहाटी ही एकमात्र ऐसा शहर है जिसे बड़ा माना जा सकता है और जिसकी आबादी 10 लाख से अधिक है।
विकास जो प्रकृति विरोधी नहीं
पूर्वोत्तर का समाज पारंपरिक परिस्थितिकीय संतुलन ज्ञान की दृष्टि से अद्भुत है। यहां जीवन की उन्हीं पद्धतियों का विकास हुआ है जो प्रकृति के विरोधी नहीं, बल्कि उन्हीं के आनुषंग हैं। प्रकृति में प्रत्येक छोटे-बड़े तत्व की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। पारंपरिक पारिस्थितिक संतुलन का प्राचीन ज्ञान पूर्वोत्तर की वनीय संपदा और पर्यावरण संतुलन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। प्रकृति अनुकूल कृषि से लेकर जीवन-यापन की तमाम विधियां प्रकृति की परिस्थितियों में अपने को साधने की मनोवृत्ति से प्रेरित हैं। खान-पान, रहन-सहन, पारंपरिक प्रकृति के अनुरूप हैं। प्राकृतिक औषधीय वनस्पतियों के माध्यम से जहां एक ओर स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निदान की तमाम विधियां प्रचलित हैं, वहीं घर की महिला से लेकर गांव के बुजुर्ग तक जड़ी-बूटी के गहरे जानकार यहां मिल जायेंगे जो हड्डी को ठीक करने से लेकर विष-हरण की विद्या में निपुण होते हैं। स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के निदान हेतु प्रयुक्त सामग्री का 90 प्रतिशत हिस्सा यहां स्थानीय स्तर पर मिल जाता है।
अनुभव की शक्ति
इस प्रकार भारतीय ज्ञान परंपरा का एक समृद्ध और जीवंत रूप यहां दिखाई देता है जिस पर अभी बहुत शोध करने की आवश्यकता है। परंपराओं का निर्माण युगों में होता है इसलिए उनमें अनुभव की शक्ति विद्यमान होती है जिसकी पहचान की जानी चाहिए। आज हम पश्चिमी अनुकरण में इतने अंधे हो गए हैं कि हमें अपने घर की ज्ञान-राशि दिखाई नहीं देती। हम इन पारंपरिक तौर-तरीकों को आज भी पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं। आधुनिक और शहरी लोगों के लिए यह सब जंगली व्यवहार है।
गुलामी की मानसिकता से मुक्त होने की आवश्यकता
गुलामी की मानसिकता अभी भी हमें गुलाम बनाये हुए है जिससे मुक्त होने की बड़ी आवश्यकता है।
पूर्वोत्तर भारत की एक बहुत बड़ी विशेषता यहां के ‘पवित्र वन’ हैं जिनकी सहायता से विभिन्न दुर्लभ वनस्पतियों की रक्षा ही नहीं होती, बल्कि नये पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण में वे महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । जैव-विविधता के संतुलन से लेकर प्रकृति के मूल स्वरुप के दर्शन इन ‘पवित्र-वनों’ में ही हो सकते हैं । इन पवित्र वनों में पारंपरिक रूप से दैवीय शक्तियों का निवास माना जाता है और इसमें प्रवेश करना अथवा वहां की किसी भी सामग्री को वन-क्षेत्र से बाहर ले आना पूरी तरह से वर्जित होता है | केवल आधिकारिक व्यक्ति ही पूरी आस्था और विश्वास के साथ प्रकृति का पूजन करके इसमें प्रवेश कर सकता है | लोगों में यह धारणा व्याप्त है कि अगर किसी भी तरह से इस भूमि को अपवित्र करने का प्रयास किया जाएगा तो बड़ी विपत्ति का सामना करना पड़ सकता है | मेघालय से लेकर असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और मिजोरम के तमाम क्षेत्रों में ऐसे पवित्र वन बहुतायत से हैं जिसमें विश्व की तमाम दुर्लभ वनस्पतियां आज भी विद्यमान हैं और पूरे विश्व से विशेषज्ञ उनका अध्ययन करने के लिए इस क्षेत्र में आते हैं ।
‘विश्व-धरोहर’ की मान्यता
यही कारण है कि इन पवित्र-वनों को ‘विश्व-धरोहर’ की मान्यता प्राप्त है। असम में इन पवित्र भूमि क्षेत्रों को डिकोस नाम से जाना जाता है जोकि दिमासा जनजाति क्षेत्र की विश्वास-परंपरा का महत्वपूर्ण अंग है। अरुणाचल प्रदेश में इन पवित्र वनों की संख्या 58 है जबकि मणिपुर में 166 पवित्र वन आज भी विद्यमान हैं। सिक्कि म में इनकी संख्या 56 से अधिक आंकी गयी है। स्पष्ट है कि भारत की पर्यावरणीय पारिस्थितिकी में पूर्वोत्तर भारत अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। वास्तव में पूर्वोत्तर भारत की जीवन शैली, पारंपरिक जीवन पद्धति आदि को नये ढंग से पहचानने की आवश्यकता है और उनके पारंपरिक पर्यावरण संरक्षण के ज्ञान को पूरे देश में लागू करने की आवश्यकता है।
आज हम जिस प्रकार की प्राकृतिक समस्याओं को झेल रहे हैं ,उसे लंबे समय तक अनदेखा नहीं किया जा सकता और विकास के पश्चिमी ढांचे को पूरी तरह से आदर्श भी मानना ठीक नहीं। यह बेहतर है कि हम अपने पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करके प्रगति और विकास के बीच एक संतुलन स्थापित करने का प्रयास करें जिनके माध्यम से एक अच्छे समाज और देश का निर्माण हो सके। (समाप्त)।