नीलोत्पल आचार्य
नई दिल्ली। जब कभी आपको लगे कि आप एक विकसित युग में रहते हैं तो आप अजंता और एलोरा की गुफाओं में चले जाना। वहां हमारे पूर्वजों की तकनीकें आपके भ्रम को चकनाचूर कर देंगी। जब दुनिया आदिम युग में जी रही थी, तब हमारे पूर्वजों ने एक पहाड़ को काटकर इस मंदिर का निर्माण कर पूरे विश्व को आश्चर्यचकित कर दिया था|
एलोरा के कैलाश मंदिर का निर्माण राष्ट्रकूट वंश के नरेश कृष्ण (प्रथम) ने लगभग 1240 वर्ष पूर्व करवाया था !
40,000 टन पत्थर काट कर निकाला गया
इसके निर्माण के लिए पहाड़ से लगभग 40,000 टन पत्थर काट कर निकाले गए। एक अनुमान के अनुसार अगर 7000 कारीगर प्रतिदिन परिश्रम करें तो लगभग 150 वर्षों में इस मंदिर का निर्माण कर सकेंगे लेकिन इस मंदिर का निर्माण केवल 18 वर्षों में ही कर लिया गया था |
कौन से उपकरणों का प्रयोग किया
जरा सोचिए आधुनिक क्रेन और पत्थरों को काटने वाली बड़ी-बड़ी मशीनों की अनुपस्थिति में ऐसे कौन से उपकरणों का प्रयोग किया गया जिनके कारण मंदिर निर्माण में इतना कम समय लगा? जहां विश्व के लगभग सभी निर्माण नीचे से ऊपर की ओर पत्थरों को जोड़कर किये गए हैं, वहीं इस मंदिर को बनाने के लिए एक विशाल पर्वत को ऊपर से नीचे की ओर काटा गया।
पत्थर के साइज और गुणवत्ता का पूर्वानुमान कैसे लगाया होगा?
आधुनिक समय में एक बिल्डिंग के निर्माण में भी 3डी डिजाइन साफ्टवेयर, सीएडी साफ्टवेयर और सैकड़ों ड्राइंग्स की मदद से उसके छोटे मॉडल्स बनाकर रिसर्च की आवश्यकता होती है फिर उस समय हमारे पूर्वजों ने इस मंदिर का निर्माण कैसे सुनिश्चित किया होगा, पत्थर के साइज और गुणवत्ता का पूर्वानुमान कैसे लगाया होगा?
काटकर निकाले गए पत्थर आसपास के 50 किमी के क्षेत्र में भी कहीं नहीं मिलते
आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि पर्वत को काटकर निकाले गए लगभग 40000 टन पत्थर आसपास के 50 किमी के क्षेत्र में भी कहीं नहीं मिलते, आखिर इतनी भारी मात्रा में निकाले गए पत्थरों को किसकी सहायता से और कितनी दूर हटाया गया होगा?
जब आप देखेंगे
मंदिर टावर, महीन डिजाइन वाले खूबसूरत छज्जे, जरूरी स्थानों पर खंभे, दो निर्माणों के बीच में पुल, गुप्त अंडरग्राउंड रास्ते, मंदिरों में जाने के लिए सीढ़ियां और पानी को स्टोर करने के लिए नालियां, इन सभी का ध्यान पर्वत को ऊपर से नीचे की ओर काटते हुए कैसे रखा गया होगा, अपने आप में हैरान करने वाला विषय है।
जैसे पत्थर को तराशकर मूर्ति बनती है
इस निर्माण को आप कुछ इस तरह से समझ सकते हैं कि जैसे एक मूर्तिकार एक पत्थर को तराशकर मूर्ति का निर्माण करता है, ठीक वैसे ही हमारे पूर्वजों ने एक पर्वत को तराशकर ही इस मंदिर का निर्माण कर दिया था।
महान विरासतों को नहीं मिली पहचान
सबसे आश्चर्य की बात यह है कि एक ओर जहां विश्व की छोटी-छोटी इमारतें भी एक वेस्टर्न प्रोपगैंडा के अंतर्गत प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी हैं, वहीं हमारी महान विरासतें सनातन विरोधी षडयंत्रों में, इतिहासकारों की मिलीभगत से भारत में भी अपनी पहचान नहीं बना सकीं।