संजय तिवारी
गीताप्रेस शब्द जेहन में आते ही एक ऐसी तस्वीर उभर कर सामने आती है जो मानस को भारतीयता से भर देती है। भारत की महान प्राचीन गौरवशाली परम्परा और आधार ग्रंथों के बारे में पूरी दुनिया को तमाम जानकारी इस संस्था के मार्फत मिल सकती है। गीता प्रेस केवल एक मुद्रण और प्रकाशन संस्थान भर नहीं बल्कि एक ऐसी राजधानी बन चुका है जहां से अपनी जानकारी पुख्ता कर के ही भारतीय सनातन समाज संतुष्ट हो पाता है। पर्व त्यौहारों से लेकर लघुसिद्धान्त कौमुदी, पुराणों, उपनिषदों और सभी ग्रंथों की प्रमाणिकता तब तक सिद्ध नहीं मानी जाती, जब तक उनकी पुष्टि गीता प्रेस से नहीं हो जाती। वास्तव में गीता प्रेस वह बिन्दु बन चुका है जिसे भारतीयता की गंगोत्री कह सकते हैं क्योंकि मानस की कथा हो या कृष्ण चरित्र की गाथा या फिर गीता का ज्ञान, हर कथामृत रूपी गंगा इसी गंगोत्री से होकर गुजरती है।
95 करोड़ पुस्तकें : आज के इस घोर आर्थिक युग में कोई संस्था बिना किसी लाभ के हर साल 95 करोड़ पुस्तकें उस दाम पर बेच रही है जिस दाम पर खाली सादा कागज मिलना भी संभव नहीं है। इस समय गीता प्रेस से 15 भारतीय भाषाओं में 2300 प्रकार की पुस्तकों का प्रकाशन किया जा रहा है।
मुद्रण और प्रकाशन का कीर्तिमान : गीताप्रेस के नाम 1880 प्रकार की पुस्तकें प्रकाशित करने का कीर्तिमान स्थापित है। यह दुनिया का शायद अकेला ऐसा संस्थान है जहां से इतनी पुस्तकें एक ही कैंपस से प्रकाशित हो रही हैं। पंद्रह भाषाओं में प्रकाशन चल रहा है। रामचरितमानस 9 भाषाओं में छप रहा है।
145000 वर्गफीट का परिसर : आज गीता प्रेस का कुल परिसर 145000 वर्ग फीट में है। इसमें केवल प्रकाशन का कार्य हो रहा है। इसके अलावा 55000 वर्ग फीट में व्यावसायिक परिसर है।
प्रमुख संत विभूतियां : गीता प्रेस के बारे में कहा जाता है कि जो यहां झाड़ू भी लगाता है, वह किसी भी शास्त्रीय विद्वान के बराबर का ज्ञान पा लेता है । गीता, श्रीमद् भागवत आदि ग्रंथों के प्रकाशन में सम्पादकीय और अनुवाद के बाद ही शांतनु द्विवेदी को दुनिया ने परम पूज्य स्वामी अखण्डानन्द सरस्वती के रूप में पाया। स्वयं सेठ जय दयाल गोयन्का, स्वामी रामसुख दास जी महाराज, भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार और आचार्य नंदा दुलारे वाजपई जी आज पूरी दुनिया में जाने गए तो यह इसी की देन है। आचार्य नंद दुलारे वाजपई यहीं कल्याण के सम्पादकीय विभाग से निकल कर कुलपति के पद पर आसीन हुए। स्वयं करपात्री जी और महामना मदन मोहन मालवीय के
साथ महात्मा गांधी इस संस्था से जुड़े रहे। एक शास्त्रीय विवाद में तो मालवीय जी और करपात्री के बीच जयदयाल को ही सरपंच बनाया गया था।
भारत रत्न से भी अरुचि : देश की स्वाधीनता के बाद डॉ संपूर्णानंद, कन्हैयालाल मुंशी और अन्य लोगों के परामर्श से तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने भाई जी को `भारत रत्न’ की उपाधि से अलंकृत करने का प्रस्ताव रखा लेकिन भाई जी ने इसमें भी कोई रुचि नहीं दिखाई।
जयदयाल संस्थापक : गीताप्रेस के संस्थापक जयदयाल गोयन्का का जन्म राजस्थान के चुरू में ज्येष्ठ कृष्ण 6, सम्वत 1942 (सन 1885) को श्री खूबचन्द्र अग्रवाल के परिवार में हुआ था। बाल्यावस्था में ही इन्हें गीता तथा रामचरितमानस ने प्रभावित किया। वे अपने परिवार के साथ व्यापार के उद्देश्य से बांकुड़ा(पश्चिम बंगाल) चले गए। बंगाल में दुर्भिक्ष पड़ा तो उन्होंने पीड़ितों की सेवा का आदर्श उपस्थित किया। उन्होंने गीता तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों का गहन अध्ययन करने के बाद अपना जीवन धर्म-प्रचार में लगाने का संकल्प लिया। इन्होंने कोलकाता में ‘गोविन्द-भवन’ की स्थापना की। वे गीता पर इतना प्रभावी प्रवचन करने लगे थे कि हजारों श्रोता मंत्र-मुग्ध होकर सत्संग का लाभ उठाते थे। ‘गीता-प्रचार’ अभियान के दौरान उन्होंने देखा कि गीता की शुद्ध प्रति मिलनी दूभर है। उन्होंने गीता को शुद्ध भाषा में प्रकाशित करने के उद्देश्य से सन 1923 में गोरखपुर में गीता प्रेस की स्थापना की। उन्हीं दिनों उनके मौसेरे भाई हनुमान प्रसाद पोद्दार उनके सम्पर्क में आए तथा वे गीता प्रेस के लिए समर्पित हो गए।
गीता प्रेस-गोरखपुर : कोलकाता में श्री सेठ जी के सत्संग के प्रभाव से साधकों का समूह बढ़ता गया और सभी को स्वाध्याय के लिये गीता की आवश्यकता महसूस हुई, परन्तु शुद्ध पाठ और सही अर्थ की गीता सुलभ नहीं हो रही थी। सुलभता से ऐसी गीता मिल सके इसके लिये सेठजी ने स्वयं पदच्छेद, अर्थ एवं संक्षिप्त टीका तैयार करके गोविन्द-भवन की ओर से कोलकाता के वणिक प्रेस से पांच हजार प्रतियां छपवायीं। यह प्रथम संस्करण शीघ्र समाप्त हो गया। छह हजार प्रतियों के अगले संस्करण का पुनर्मुद्रण उसी वणिक प्रेस से हुआ। कोलकाता में कुल ग्यारह हजार प्रतियाँ छपीं। परन्तु इस मुद्रण में अनेक कठिनाइयां आईं। पुस्तकों में न तो आवश्यक संशोधन कर सकते थे, न ही संशोधन के लिये समुचित सुविधा मिलती थी। मशीन बार-बार रोककर संशोधन करना पड़ता था।
तब प्रेस के मालिक, जो स्वयं सेठजी के सत्संगी थे, ने सेठजी से कहा–किसी व्यापारी के लिये इस प्रकार मशीन को बार-बार रोककर सुधार करना अनुकूल नहीं पड़ता। आप जैसी शुद्ध पुस्तक चाहते हैं, वैसी अपनी निजी प्रेस में ही छापना सम्भव है। सेठजी ने विचार किया कि प्रेस अलग होनी चाहिये, जिससे शुद्ध पाठ और सही अर्थ की गीता गीता-प्रेमियों को प्राप्त हो सके। इसके लिये एक प्रेस गोरखपुर में एक छोटा-सा मकान लेकर लगभग 10 रुपये के किराये पर वैशाख शुक्ल 13, रविवार, वि. सं. 1980 (23 अप्रैल 1923 ई0) को प्रेस की स्थापना हुई, उसका नाम गीता प्रेस रखा गया।
गांधी शांति सम्मान स्वीकार पर पुरस्कार राशि नहीं लेंगे : गीता प्रेस
नई दिल्ली। वर्ष 2021 का गांधी शांति पुरस्कार गीता प्रेस, गोरखपुर को दिया जाएगा। संस्कृति मंत्रालय ने यह घोषणा की है । गीता प्रेस को अहिंसक और अन्य गांधीवादी तरीकों के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवर्तन की दिशा में योगदान पर पुरस्कार के लिए चुना गया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता वाली जूरी ने सर्वसम्मति से गीता प्रेस, गोरखपुर को पुरस्कार के लिए चुना है। गीता प्रेस के प्रबंधक डा. लालमणि तिवारी ने पुरस्कार की राशि को लेकर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि “1 करोड़ की सम्मान राशि नहीं लेंगे, हम प्रशस्ति पत्र स्वीकार करेंगे।