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संवैधानिक संस्थाओं के विरोध का बढ़ता चलन खतरनाक

by Blitzindiamedia
January 12, 2024
in दृष्टिकोण
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The increasing trend of opposition to constitutional institutions is dangerous

deepakआजकल देश में यहां की सरकारी व्यवस्था में क्या होना चाहिए; और क्या नहीं, इस बात को लेकर एक बड़ा दिलचस्प नजरिया देखने एवं सुनने को मिल रहा है। देश भर में विपक्ष के नेता आरोप लगा रहे हैं कि केन्द्र सरकार की जांच एजेंसियां एनडीए से जुड़ी पार्टियों से इतर बाकी तमाम विपक्षी दलों के नेताओं और उनकी राज्य सरकारों के खिलाफ और उनसे जुड़े हुए कारोबारों के खिलाफ एकतरफा जांच में व्यस्त हैं, जबकि वास्तव में ऐसा है नहीं। विपक्षी नेता तथा पार्टियां ऐसे आंकड़े देने में जुटी हैं कि प्रवर्तन निदेशालय (एनफोर्समेंट डाइरेक्टोरेट, ईडी) की चल रही तमाम जांच में से कितनी जांच विपक्षी नेताओं के खिलाफ हैं और कितनी अन्य के। लेकिन यहां यह तथ्य भी समझने और गौर करने योग्य है कि भले ही तमाम जांच एजेंसियां विपक्षी नेताओं के ईमानदार होने के दावों के खिलाफ जांच में व्यस्त हैं; पर जांच एजेंसियों का विरोध और उनके कर्मचारियों पर जानलेवा हमले की घटनाएं ऐसे सभी नेताओं के संबंध में ‘कुछ न कुछ’ गड़बड़ होने का अंदेशा स्वत: ही उत्पन्न कर देती हैं। यही नहीं, विपक्ष के नेताओं द्वारा संवैधानिक संस्थाओं का विरोध किए जाने का बढ़ता चलन अब खतरनाक होता जा रहा है।

– ईडी के छापों में जहां करोड़ों रुपये, सोना तथा घातक हथियार बरामद हो रहे हों तो ऐसे समय में जब ऐसे मामले सामने आ रहे हैं तो सभी को जांच एजेंसियों के सवालों से भागने एवं राजनीतिक रंग देने के बजाय उन्हें साक्ष्यों से समाप्त करने से ही बात बनेगी; न कि संवैधानिक संस्थानों के विरोध से।

देश के दर्जन भर से अधिक राजनीतिक दलों ने कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट में इसी संबंध में एक याचिका भी लगाई थी कि केन्द्रीय जांच एजेंसियों को नेताओं के खिलाफ कार्रवाई करते हुए क्या-क्या नहीं करना चाहिए। इनके वकील ने सुप्रीम कोर्ट से केन्द्र सरकार और उसकी एजेंसियों को निर्देश देने की अपील की थी, ताकि राजनेताओं को जांच की प्रताड़ना न झेलनी पड़े एवं उन्हें जल्द जमानत मिल जाए। विपक्षी वकील का यह आरोप था कि केन्द्र सरकार चुनिंदा तरीके से राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाती है तथा ऐसे में गिरफ्तारी, रिमांड, और जमानत, सबके लिए सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देने चाहिए। कांग्रेस सहित देश के 14 विपक्षी दलों ने यह पिटीशन लगाई थी। कांग्रेस के एक बड़े नेता और सुप्रीम कोर्ट के एक प्रमुख वकील अभिषेक मनु सिंघवी इसे लेकर अदालत में खड़े हुए थे पर कोर्ट का रूख देखकर सिंघवी ने यह पिटीशन वापिस ले ली थी।

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इस मामले को सुन रहे देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने इस बात पर कुछ हैरानी भी जाहिर की थी कि कैसे नेता अपने आपको बाकी जनता से परे के ऐसे कोई विशेषाधिकार देने की मांग कर सकते हैं? उन्होंने कहा था कि राजनेता और देश की जनता का दर्जा एक बराबर है, वे जनता से ऊपर किसी दर्जे का दावा नहीं कर सकते, उनके लिए कोई अलग प्रक्रिया कैसे हो सकती है? जितनी तरह की बातें विपक्षियों के वकील ने कही थीं, वे जांच और मुकदमों का सामना कर रहे विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारी में कुछ शर्तें लगाने, उनको आसान जमानत मिलने की वकालत करते हुए थीं। मुख्य न्यायाधीश ने इनको पूरी तरह से खारिज कर दिया और कहा कि अगर केन्द्र सरकार और जांच एजेंसियों ने किसी मामले में ज्यादती की है तो वह मामला सामने रखा जाए। इस तरह तमाम जांच के लिए कोई निर्देश जारी नहीं किया जा सकता। उनका कहना बड़ा साफ था कि गिरफ्तारी या जमानत के मामले में जनता और नेता के बीच कोई फर्क कैसे किया जा सकता है?

आज की तारीख में तमाम नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के तथाकथित आरोपों में जांच एजेंसियां जांच कर रही हैं पर अब यह अजीब सी परिपाटी बनती जा रही है कि जब भी किसी राजनेता पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते हैं तो वह संबंधित जांच एजेंसी को ही कठघरे में खड़ा कर देता है। वह जांच एजेंसी के इरादों एवं उसकी नीयत पर ही सवाल उठाना शुरू कर देता है। इतना ही नहीं अगर संबंधित राजनेता किसी राज्य का मुख्यमंत्री हो तो वह अपने पक्ष में पूरे राज्यतंत्र को ही ला खड़ा करता है। दिल्ली और झारखंड के मुख्यमंत्री संभवत: इसी दांव का प्रयोग सा करते दिखाई दे रहे हैं। अवैध खनन में धनशोधन मामले की जांच के सिलसिले में पूछताछ के लिए प्रवर्तन निदेशालय झारखंड के मुख्यमंत्री को सात बार समन भेज चुका है, मगर वे किसी न किसी बहाने उसमें सहयोग करने से बचते रहे हैं। उन्होंने पार्टी, विधायकों और मंत्रियों की बैठक बुला कर समर्थन हासिल कर लिया है कि अगर प्रवर्तन निदेशालय उनके खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई करता है, तो भी वही मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी संभालते रहेंगे। इससे पहले यही कवायद दिल्ली के मुख्यमंत्री भी कर चुके हैं। उन पर कथित दिल्ली शराब घोटाले की जांच में सहयोग न करने का आरोप है। प्रवर्तन निदेशालय उन्हें तीन बार पूछताछ के लिए बुला चुका है पर वे उसके इरादे पर सवाल उठाते हुए उसके नोटिस पर ही प्रश्नचिन्ह लगा चुके हैं। वे और उनकी पार्टी लगातार इसके पीछे केंद्र सरकार की गलत मंशा बताते रहे हैं। यह अजीब सी परिस्थिति उत्पन्न करने जैसा है। यह कैसी ईमानदारी है कि आरोपी जांच में सहयोग करने के बजाय खुद को पाक-साफ बताता रहे। इसमें कोई संदेह नहीं कि अगर किसी ने कुछ गलत नहीं किया है तो फिर उसे किसी भी जांच से डर कैसा, क्योंकि सांच को आंच नहीं होती। कायदे से आरोपी को जांच एजेंसियों के सवालों का जवाब देकर साबित करना होता है कि वह निरपराध है।

प्रवर्तन निदेशालय लंबे समय से दिल्ली शराब घोटाले और झारखंड में अवैध खनन से जुड़े मामलों की जांच कर रहा है। उसे कुछ तो तथ्य हाथ लगे होंगे, जिनके आधार पर उसने दोनों मुख्यमंत्रियों को पूछताछ के लिए तलब किया है। आरोप हैं कि दोनों मामलों में कई लोगों को संलिप्त पाया गया है। ऐसे में बेहतर यही है कि आरोपों के खिलाफ सबूत पेश किए जाएं और स्वयं को निर्दोष साबित किया जाए। यह बात तो खासकर उन लोगों के लिए विशेष रूप से अहम है जो सार्वजनिक जीवन से संबंध रखते हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री से इसलिए भी सवालों का सामना करने की अपेक्षा की जा रही है कि वे अपनी पार्टी के गठन के दिन से ही यह दावा कर रहे हैं कि उनकी पार्टी खांटी ईमानदार है। ईमानदारी का प्रमाण मात्र जुबानी नहीं हो सकता। उसे सबूतों के जरिए दर्शाना भी होता है। ईडी के छापों में जहां करोड़ों रुपये, सोना तथा घातक हथियार बरामद हो रहे हों तो ऐसे समय में जब ऐसे मामले सामने आ रहे हैं तो सभी को जांच एजेंसियों के सवालों से भागने एवं राजनीतिक रंग देने के बजाय उन्हें साक्ष्यों से समाप्त करने से ही बात बनेगी; न कि संवैधानिक संस्थानों के विरोध से।

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