दीपक द्विवेदी
न्यायमूर्ति नागरत्ना की टिप्पणी भी गौर करने लायक है कि महिलाएं भारतीय परिवारों की रीढ़ होती हैं और उन्हें कमजोर करके मजबूत समाज और अंततः सशक्त राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता।
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को एक और ऐतिहासिक फैसला दिया। इस फैसले को शाहबानो पार्ट-2 भी कहा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट करते हुए कि यह फैसला सभी धर्मों पर समान रूप से लागू होता है; कहा कि अब तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं भी पति से गुजारा भत्ते की मांग कर सकती हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि कोर्ट के इस फैसले के बाद से लगातार बयानबाजी जारी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि देश में सभी को अपनी बात रखने की आजादी है पर सुप्रीम कोर्ट के सही एवं प्रगतिशील फैसले सिर्फ और सिर्फ सराहना के ही पात्र होते हैं। ऐसे फैसलों को लेकर निहित राजनीतिक स्वार्थों के वशीभूत हो कर की जा रही बयानबाजी को कदापि उचित नहीं ठहराया जा सकता और न ही इसे अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में रखा जा सकता है।
वैसे शीर्ष अदालत तो 1985 के शाहबानो मामले में ही यह स्पष्ट कर चुकी थी कि सीआरपीसी की धारा 125 प्रत्येक भारतीय महिला पर लागू होती है लेकिन तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 के जरिये संविधान में संशोधन कर के शीर्ष अदालत के फैसले को निरस्त कर दिया था। ताजा मामले में न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने व्यापक प्रभाव वाले अपने निर्णय के जरिये एक बार फिर यह स्थापित किया है कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला सीआरपीसी की धारा 125 के तहत अपने पति से गुजारा भत्ता मांग सकती है और इस मामले में यदि उसके साथ कोई भेदभाव होता है तो वह प्रतिगामी और अन्यायपूर्ण होगा।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला अनेक दृष्टिकोणों से महत्वपूर्ण है। इसे देश में समान नागरिक संहिता यानि कि यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करने की दिशा में एक खास मोड़ भी कहा जा सकता है। यह देश में सबके लिए एक समान कानून एवं न्याय की अवधारणा की ओर इंगित करता है। यह निर्णय 1985 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा शाहबानो मामले में मुस्लिम तलाकशुदा महिला को गुजारा भत्ता दिए जाने के निर्णय का भी एक बार फिर समर्थन करता है। यह तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को उनके अधिकारों से वंचित किए जाने के कदम को गलत ठहराता है जिसे कभी कांग्रेस की तत्कालीन सरकार ने संविधान में संशोधन करके निरस्त कर दिया था।
मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को गुजारे भत्ते का अधिकार देने संबंधी शीर्ष अदालत का यह ऐतिहासिक निर्णय इसलिए भी स्वागतयोग्य है क्योंकि यह न केवल मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है बल्कि यह संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को भी प्रतिपादित व सुदृढ़ करता है।
शीर्ष अदालत का यह स्पष्ट करना भी महत्वपूर्ण है कि शाहबानो मामले में फैसले के बाद लागू 1986 का कानून तलाकशुदा महिला के साथ भेदभाव का आधार नहीं हो सकता। तीन तलाक मामले के बाद यह दूसरा बड़ा कदम है जो मुस्लिम महिलाओं के हक में उठाया गया है। न्यायमूर्ति नागरत्ना की टिप्पणी भी गौर करने लायक है कि महिलाएं भारतीय परिवारों की रीढ़ होती हैं और उन्हें कमजोर करके मजबूत समाज और अंततः सशक्त राष्ट्र का निर्माण नहीं हो सकता। एक प्रगतिशील समाज वह है जो अपने नागरिकों को उनकी धार्मिक पहचान से परे समान अधिकार व न्याय मुहैया कराता है। ऐसे में शीर्ष अदालत का फैसला संविधान के मूल्यों को बनाए रखने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम तो है ही, उम्मीद की जानी चाहिए कि इससे मुस्लिम महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता भी बढ़ेगी और उन्हें अपने हक के लिए लड़ने का हौसला भी मिलेगा। अब समाज और व्यवस्था; दोनों को ही यह सुनिश्चित करना होगा कि हर एक महिला को उसका समुचित अधिकार व न्याय मिल सके।