दीपक द्विवेदी
विस्थापन और पलायन का दर्द कितना हृदय विदारक होता है, इसकी कल्पना करना भी बहुत मुश्किल है। इसकी पीड़ा वही समझ सकता है जो अपने घर से बेघर होता है। भारत हो या विश्व; विस्थापन की समस्या कोई नई नहीं है। 1947 में हुए भारत के विभाजन के कारण देश के बीच जो एक लकीर खींची गई थी, उसने लाखों लोगों को इधर से उधर अपने घरों को छोड़ कर जाने पर मजबूर कर दिया था। विभाजन और विस्थापन का वह दर्द कभी भुलाया नहीं जा सकता। तब से लेकर आज तक वजहें भले अलग-अलग हो सकती हैं पर पलायन और विस्थापन की यह प्रक्रिया पूरे विश्व में कहीं न कहीं साल दर साल आज भी जारी है।
एक अनुमान के अनुसार संघर्ष और हिंसा के कारण आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों की संख्या 2024 में लगभग 63 मिलियन तक पहुंच सकती है। साल 2023 के आखिर तक, 75.9 मिलियन लोग संघर्ष, हिंसा, और आपदाओं के कारण आंतरिक विस्थापन में रह रहे थे। इनमें से 68.3 मिलियन लोग 66 देशों और क्षेत्रों में संघर्ष और हिंसा के कारण विस्थापित होने को मजबूर हुए थे। जिनेवा स्थित इंटरनल डिस्प्लेसमेंट मॉनिटरिंग सेंटर (आईडीएमसी) की सालाना वैश्विक इंटरनल डिस्प्लेसमेंट रिपोर्ट 2024 के मुताबिक, साल 2023 के आखिर तक दुनिया भर में करीब 76 मिलियन लोग आंतरिक विस्थापन का शिकार हुए थे। पिछले पांच सालों में आंतरिक विस्थापन की संख्या में 50 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। साल 2023 में सूडान, डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ द कॉन्गो और फिलिस्तीन में हुए संघर्षों की वजह से नए विस्थापन की करीब दो-तिहाई घटनाएं हुई थीं। साल 2023 के आखिर में गाजा स्टि्रप में 3.4 मिलियन नए विस्थापन हुए थे जिससे साल के आखिर तक वहां 1.7 मिलियन लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हो गए थे। यूक्रेन भी इसका ताजा उदाहरण है।
विश्व भर में ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है, जो बहुत मुश्किल से किसी जगह पर अपना ठिकाना बनाते हैं। मगर इससे ज्यादा तकलीफदेह और क्या हो सकता है कि उन्हें ऐसी वजहों के लिए उस जगह को छोड़ कर कहीं और जाना पड़ता है जिसके लिए वे जिम्मेदार भी नहीं होते। यही नहीं, अपने ठौर से वंचित लोग जब कहीं और जीने की जगह ढूंढ़ने निकलते हैं तो सभ्य कही जाने वाली व्यवस्थाओं वाले लोकतांत्रिक देशों में भी उनके लिए टिकना आसान नहीं होता। इससे अफसोसनाक और क्या होगा कि विश्व के आधुनिक होने के दावों के बीच पिछले दो वर्षों में संघर्ष और हिंसा की वजह से अपना घर छोड़ने पर मजबूर लोगों की संख्या में शोचनीय वृद्धि हुई है। दुनिया के जिन हिस्सों में हालात में सुधार हो रहे थे, अब वहां भी यह समस्या अपने पांव पसारती जा रही है। हिंसा या संघर्षों को रोकने और शांति की स्थापना करने में हो रही यह नाकामी वस्तुत: विश्व भर के अशांत क्षेत्रों में सक्षम देशों की कूटनीतिक और रणनीतिक कवायदों का महज दिखावा होने के तथ्य को ही मजबूत कर रही है।
इस बीच यह एक अच्छी पहल है कि भारत में नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी सीएए के तहत कुछ लोगों को भारतीय नागरिकता दी गई है और बाकी लोगों को सत्यापन के बाद नागरिकता दी जाएगी । पड़ोसी देशों में प्रताड़ना का शिकार रहे गैर- मुस्लिम प्रवासियों को यह नागरिकता प्रदान की जा रही है। यह अधिनियम 31 दिसम्बर, 2014 तक या उसके पूर्व भारत आए बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के प्रवासियों को नागरिकता प्रदान करने के लिए दिसम्बर, 2019 में लाया गया था। इनमें हिन्दू, जैन, सिख, बौद्ध, पारसी और ईसाई समुदाय के लोग शामिल हैं। पोर्टल के माध्यम से लिए गए आवेदनों के दस्तावेज के सत्यापन के बाद आवेदकों को निष्ठा की शपथ भी दिलाई गई। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इसे ऐतिहासिक बताते हुए एक्स पर लिखा कि पीएम नरेंद्र मोदी की गारंटी, वादा पूरा होने की गारंटी है। कुल मिलाकर आज आवश्यकता इस बात की है कि विश्व के सभी लोगों को मानवीय मूल्यों के आधार पर बिना भेदभाव के चैन से रहने देने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास व व्यवस्था करने के लिए ठोस कदम उठाए जाने चाहिए। बशर्ते कि वे शांतिपूर्वक जीवनयापन कर रहे हों और जहां वे हैं वहां की एकता एवं अखंडता के लिए खतरा न बन रहे हों।