दीपक द्विवेदी
देश में 18वीं लोकसभा के गठन के लिए दूसरे चरण के मतदान के बाद लोकसभा का लगभग 35 प्रतिशत चुनाव संपन्न हो चुका है। चुनाव आयोग की इस लोकसभा चुनाव में मतदान बढ़ाने की कोशिश कुछ राज्यों में सफल होती नजर आई तो कुछ राज्यों में आयोग की कोशिश का कोई खास असर नहीं दिखा। बिहार, छत्तीसगढ़ और राजस्थान समेत पांच राज्यों में पहले चरण की तुलना में दूसरे चरण में अधिक वोट पड़े जबकि इसके विपरीत उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश समेत छह राज्यों में पहले चरण की तुलना में कम मतदान हुआ है। यद्यपि पहले चरण के मतदान की अपेक्षा दूसरे चरण के मतदान में थोड़ा अधिक उत्साह दिखा जिसे सुखद एवं स्वागतयोग्य कहा जा सकता है किंतु फिर भी इसे आशानुरूप मतदान शायद नहीं कहा जा सकता।
हालांकि दोनों स्थितियों में मतदाताओं के मन का आकलन करना कठिन है पर लोकतंत्र के प्रति मतदाताओं; खास कर युवा मतदाताओं के मन में उत्साह की कमी चिंता का सबब अवश्य होना चाहिए। साथ ही इसके पीछे के कारणों पर गहन मंथन की भी जरूरत है। दूसरे चरण में 88 सीटों पर 1,202 उम्मीदवारों का भाग्य ईवीएम में बंद हो चुका है। इस चरण में कुल 15.88 करोड़ वोटरों में से 3.28 करोड़ युवा वोटर रहे और उनमें भी 34 लाख युवाओं को तो प्रथम बार अपना वोट डालने का अवसर मिला था। अब इनमें से कितनों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया; ये आंकड़े तो बाद में ही पता चलेंगे पर इस चुनाव में सभी राजनीतिक दलों ने युवाओं से बड़ी-बड़ी उम्मीदें लगा रखी हैं एवं अभी तो पांच दौर का मतदान होना शेष है।
अत: अब सभी दलों के नेताओं एवं दलों का यह कर्तव्य बनता है कि वे अपने आचरण से मतदाताओं के मन में लोकतंत्र के प्रति आस्था और विश्वास को और दृढ़ करें। साथ ही ऐसे वक्तव्यों व बयानबाजी से बचें ताकि उनकी विश्वसनीयता बरकरार रहे। नकारात्मक बयानबाजी से लोकतंत्र कमजोर पड़ता है और इसी के फलस्वरूप मतदान के प्रतिशत पर भी असर पड़ने की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। मतदाता लोकतंत्र की पूरी प्रक्रिया के प्रति उदासीन होने लगता है। एक बात और यह है कि आज भारत तमाम प्राकृतिक संसाधनों से परिपूर्ण होने के बाद भी भ्रष्टाचार के दंश से बाहर नहीं निकल पा रहा है। युवा आज भी जहां अनेक चुनौतियों से जूझ रहे हैं, वहीं 75 वर्ष से ज्यादा समय और बीतने के बाद अमृत महोत्सव का उत्सव मनाकर आनंदित होने के बाद भी देश में जो सबसे बड़ा संकट है, वह राजनीति में विश्वास का संकट है। कोई किसी पर विश्वास करे भी तो क्यों करे? ऐसे माहौल में सबसे अधिक जरूरी यह हो जाता है कि नेतागण व सरकार के द्वारा चुनाव के प्रति जिम्मेदारी और जन-जागरूकता पर ज्यादा ध्यान देने की सर्वाधिक आवश्यकता है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव के प्रारंभ से ही देश की जनता से लोकतंत्र के इस पावन पर्व में बढ़-चढ़ कर भाग लेने की अपील की है पर पहले चरण में लोग गर्मी व अन्य कारणों से कम निकले लेकिन दूसरे चरण में उनकी अपील का असर दिखा और अपेक्षाकृत मतदान प्रतिशत भी बढ़ा।
वैसे पहले चरण में कम मतदान की चर्चा भी खूब हुई है और इसके आधार पर विभिन्न राजनीतिक दलों को हार-जीत का आकलन भी करते देखा-सुना गया है। हालांकि, कम या ज्यादा मतदान के कभी तय परिणाम नहीं होते हैं। इसलिए चुनाव विशेषज्ञों को चाहिए कि वे जोरदार हार अथवा जीत की चर्चा करने के बजाय वोटिंग प्रतिशत में वृद्धि के लिए प्रोत्साहित करने पर अधिक जोर दें। इसमें कोई दोराय नहीं है कि मतदान में सभी की ज्यादा से ज्यादा भागीदारी ही लोकतंत्र को मजबूत बनाती है और नेताओं को भी सतर्क करती है। नेता केवल अपने सुरक्षित दायरे में ही प्रचार न करें बल्कि अधिकतम सभी मतदाताओं तक पहुंचने की कोशिश करें। आवश्यकता इसकी भी है कि नेतागण अपनी विश्वसनीयता को बढ़ाने का प्रयास भी करें।