साल 2005 में गाजा को फिलिस्तीन अथॉरिटी को सौंपकर इस्राइल वहां से निकल गया लेकिन, फिलिस्तीन का गाजा पर क़ब्ज़ा दो साल ही रहा। साल 2005 में डेफ के आतंकी समूह हमास ने तख्तापलट करके गाजा का शासन अपने हाथ में ले लिया और इस्राइल के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसक अभियान चलाने लगा।
डेफ को जानने वाले बताते हैं कि दहशतगर्दी की दुनिया में उतरने से पहले वह चेहरे से शांत दिखता था, लेकिन बातों से मक्क ारी झलकती थी। वह तब भी इस्राइल का मुकाबला करने के लिए हिंसा का ही सहारा लेने के हक में था। उसका मानना था कि फिलिस्तीन के सभी गुटों को एक होकर इस्राइल के खिलाफ अभियान चलाना चाहिए, ताकि उन्हें यह गुमान ना रहे कि वे जबरन कब्जे वाली ज़मीन पर सुकून से रह सकते हैं।
हमास के दूसरे लोगों की तरह डेफ भी 1990 के दशक में हुए ओस्लो समझौते को फिलिस्तीनियों के साथ विश्वासघात मानता है। इसमें बातचीत के जरिए शांति समझौते का वादा किया गया था। लेकिन, हमास और इस्लामिक जिहाद का मानना है कि अगर इस समस्या का टू-स्टेट सॉल्यूशन निकलता है, तो फिलिस्तीनी शरणार्थी उस ऐतिहासिक जमीन पर लौटने का अधिकार खो देंगे, जिस पर 1948 में इस्राइल ने कब्जा कर लिया था। ओस्लो शांति समझौते के विरोध में डेफ ने साल 1996 में एक बम विस्फोट कराया, जिसमें 50 से अधिक इस्राइली नागरिक मारे गए।
डेफ का मानना है कि फिलिस्तीनियों को उनका अधिकार इस्राइल के खात्मे के बाद ही मिल सकता है। उसके मुताबिक इस्राइल पर रॉकेटों की बौछार से इसका आगाज भी हो चुका है।
क्या अब अब्राहम एकॉर्ड कुछ वक़्त के लिए पीछे चला गया है
15 सितंबर, 2020 को इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच अरब-इस्राइल सामान्यीकरण पर द्विपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा मध्यस्थता (13 अगस्त, 2020) की प्रारंभिक घोषणा, केवल इस्राइल और संयुक्त अरब अमीरात से संबंधित है। 11 सितंबर, 2020 को इस्राइल और बहरीन के बीच एक अनुवर्ती समझौते की घोषणा से पहले 15 सितंबर, 2020 को अब्राहम समझौते की पहली पुनरावृत्ति के लिए आधिकारिक हस्ताक्षर समारोह व्हाइट हाउस में ट्रम्प प्रशासन द्वारा आयोजित बैठक में किया गया था। दोहरे समझौतों के हिस्से के रूप में, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन, दोनों ने इस्राइल की संप्रभुता को मान्यता दी, जिससे पूर्ण राजनयिक संबंधों की स्थापना संभव हो सकी।
संयुक्त अरब अमीरात के साथ इस्राइल का प्रारंभिक समझौता 1994 के बाद से किसी अरब देश के साथ इस्राइल द्वारा राजनयिक संबंध स्थापित करने का पहला उदाहरण है, जब इस्राइल-जॉर्डन शांति संधि लागू हुई थी। अब्राहम समझौते पर बहरीन के विदेश मंत्री अब्दुल्लातिफ बिन राशिद अल-ज़यानी ने हस्ताक्षर किए थे और अमीरात के विदेश मंत्री अब्दुल्ला बिन जायद अल-नाहयान ने इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू का सामना किया, जिसमें अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प गवाह थे। उनके साथ ट्रम्प के दामाद और वरिष्ठ सलाहकार जेरेड कुशनर और कुशनर के सहायक एवी बर्कोविट्ज़ द्वारा बातचीत की गई थी।
हमास की ओर से यह हमला इस तनाव के मद्देनजर 50 बरसों में सबसे बड़ी घटना है। यह एक बहुत अहम समय पर हुआ है। हाल फिलहाल के वक़्त में ‘अरब अपराइजिंग’ का मुद्दा पीछे चला गया था और ग्लोबल पॉलिटिक्स की सारी प्राथमिकताएं बदल गई थीं। हालांकि अब ऐसा लगता है कि अरब अपराइजिंग का मुद्दा एक बार फिर सतह पर आएगा। इस मसले के बाद अब्राहम एकॉर्ड के टिकाऊ होने पर भी सवाल उठ रहे हैं। इस घटना ने साबित कर दिया है कि फिलिस्तीन को साथ लिए बगैर अब्राहम एकॉर्ड सस्टेनेबल नहीं है। फिलिस्तीनी राष्ट्रपति अब्बास की प्रतिक्रिया देखें तो उन्होंने हमास को पूरी तरह से सपोर्ट कर दिया है यानी फिलिस्तीनी लीडरशिप एकजुट हो गई है। इससे साफ़ है कि अब्राहम एकॉर्ड अब कुछ वक़्त के लिए नेपथ्य में चला जाएगा।
अमेरिका और ब्रिटेन ने, साथ में नाटो से जुड़े ज़्यादातर मुल्कों ने इसे सीधे तौर पर आतंकी हमला कहा और इससे मुक़ाबले के लिए इस्राइल को हर तरह की सहायता देने का वचन दिया। भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी इस आतंकवादी हमले की निंदा की और संकट की इस घड़ी में इस्राइल के साथ खड़े होने की बात कही। दूसरी तरफ, ईरान ने प्रतिक्रिया का दूसरा छोर पकड़ते हुए हमास के हमले को लेकर प्रसन्नता जाहिर की, जबकि अरब लीग ने फिलिस्तीनी जनता के अधिकारों की बात करते हुए याद दिलाया कि हमास का यह जवाबी हमला काफी समय से जारी इस्राइल के एकतरफा हमलों का ही परिणाम है। सऊदी अरब, रूस और चीन ने स्थितियों को बेकाबू न होने देने की अपील की और दोनों पक्षों के संपर्क में होने की बात कही, जबकि यूएई ने नागरिकों के प्रति संवेदना जताई।
ये सारी प्रतिक्रियाएं हमास हमले के पहले दिन और खबरें प्रसारित होने के दो-तीन घंटों में आ गई थीं, जब इस्राइल की जवाबी कार्रवाई शुरू भी नहीं हुई थी। इससे पता चलता है कि इस्राइल-फिलिस्तीन टकराव का बारूद दोबारा भड़क जाने को लेकर कैसी चिंता दुनिया में व्याप्त है। यूक्रेन में जारी लड़ाई ने पहले ही पूरी दुनिया में फूड और फ्यूल इन्फ्लेशन बढ़ा रखा है। इसके समानांतर अगर खाड़ी क्षेत्र में भी तनाव का दायरा बढ़ गया, तो इसका असर सबसे पहले तेल और गैस की और भी ज़्यादा महंगाई में दिखेगा, जिससे कई अर्थव्यवस्थाएं खड़े-खड़े भरभरा जाएंगी। जाहिर है, बाकी दुनिया की तरह भारत की भी सबसे पहली कूटनीतिक चिंता इस टकराव का दायरा समेटने की होगी। किसी तरह टकराव गाजा पट्टी तक ही सिमटा रहे, फिलिस्तीनी मुख्यभूमि वेस्ट बैंक इससे न जुड़े।
स्थिति यह है कि एक भौगोलिक-राजनीतिक इकाई के नाम पर फिलिस्तीन नाम वाली जो भी इकाई दुनिया में मौजूद है, वह पिछले 16 वर्षों से दो हिस्सों में बंटी हुई है। वेस्ट बैंक के रामल्ला शहर में फिलिस्तीनी अथॉरिटी का दफ्तर है और वहां एक अर्से से नरमपंथी फतह ग्रुप के नेता 88 साल के महमूद अब्बास का शासन चल रहा है। एक समय था जब फतह ग्रुप के कद्दावर नेता यासिर अराफात पूरी दुनिया में फिलिस्तीन का चेहरा हुआ करते थे और महमूद अब्बास उन्हें कट्टरपंथी बताते थे। उनकी मृत्यु के बाद महमूद अब्बास ही फतह ग्रुप का चेहरा बन गए।