के विक्रम राव
श्रीनगर। श्रीनगर घाटी में तीन दशकों बाद अल्पसंख्यक शियाओं को उनका मौलिक अधिकार हासिल हुआ। ताजिया लेकर कश्मीर में 9वें मुहर्रम के अवसर पर कई जगहों पर मातमी जुलूस निकाले गए। बडगाम, मागाम, नारबल के अलावा श्रीनगर में भी जुलूस में बड़ी संख्या में लोग शामिल हुए। इस बीच विश्व प्रसिद्ध डल झील में अनोखी नौका रैली निकाली गई। शिकारे पर काले वस्त्र पहने शिया समुदाय के लोगों ने मातम मनाया। रैली में सैंकड़ों लोग शामिल हुये।
मसला यहां यह नहीं है कि अकीदत का अधिकार उन्हें वापस मिल गया। मौलिक प्रश्न यह है कि इस हिमालयी वादी को गाजीपुर के मनोज सिन्हा की ही प्रतीक्षा थी कि वे उपराज्यपाल बन कर आएंगे और दशकों पुरानी ज्यादती को समाप्त करेंगे, इंसाफ देंगे। भारत का संविधान धार्मिक समानता और स्वतंत्रता का मौलिक हक देता है। इतने वर्षों तक कश्मीरियों को इससे वंचित क्यों रखा गया ? किसके हुकुम से ? इसका सम्यक विश्लेषण हो।
फारूक अब्दुल्लाह 8 सितंबर 1982 से कई बार वजीरे आला रहे। भारत सरकार के भाजपा-नीत कबीना में मंत्री भी रहे। घाटी में 19 जनवरी 1990 तक चार साल और फिर 2002 तक भी। गान्दरबल से विधायक थे। उपराष्ट्रपति बनते-बनते रह गए मगर उनके बेटे उमर अब्दुल्ला तो मुख्यमंत्री बने, 2005 से 2009 तक।
जब मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने तो बड़े ताकतवर माने जाते रहे। वे भारत के गृह मंत्री भी रहे थे। फिर 2015 में उनकी पुत्री महबूबा मुफ्ती ने बागडोर संभाली। अर्थात दो कुनबों के हाथ में ही राज की बात लिपटी रही थी।
इनसे जाना जा सकता है कि मोहर्रम के जुलूस को स्वीकृति उस दौर में क्यों नहीं दी गई? वे सुन्नी हैं। महज वोट की सियासत ही उनके सभी नीति-निर्धारण का पैमाना रही, कसौटी भी। आवाम का भला नहीं हुआ।
सत्ता के प्रति जनाक्रोश का कश्मीर में अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि आज शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की मजार पर सशस्त्र पहरा लगा रखा है। कहीं कोई आक्रोशित नागरिक उसे न उखाड़ न दे।
ताजिया के साथ जिक्र हो पवित्र वैष्णो देवी मंदिर का भी। लगभग आठवें दशक में अवतरण हुआ जगमोहन का श्रीनगर राज भवन में। जनहितकारी काम का सिलसिला तभी से चला था। तब तक वैष्णो देवी मार्ग जर्जर, असाध्य हो गया था। पहली बार मैं 1971 में पहाड़ पर चढ़ा था। यातना असीम थी। फिर लगातार मैं जाता रहा अपने पत्रकार साथियों के साथ, सैकड़ों की संख्या में।
सड़क ऊबड़ खाबड़ थी। जगमोहन के माध्यम से शेरावाली मां ने सुविधाएं उपलब्ध कराई। यही काम शेख मोहम्मद अब्दुल्ला स्वयं, उनके पुत्र तथा पोते नहीं कर सके।
ऐसा ही बड़ी उपेक्षित स्थिति थी समाचार पत्र कर्मचारियों और श्रमजीवी पत्रकारों की। जगमोहन राज्यपाल बने तो इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स की राष्ट्रीय परिषद के अधिवेशन (1986) में जगमोहनजी ने सारे मीडिया कानून को अभिमान्य कराया। इसी संदर्भ में अब कश्मीर के प्रगतिशील और परिवर्तन-प्रेमी उपराज्यपाल मनोज सिन्हा द्वारा शिया समुदाय की भावनाओं का आदर करने वाले प्रसंग का उल्लेख है।
शिया समुदाय के लोग इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हैं। सरकारी घोषणा की गई थी कि आशूरा (10वें मुहर्रम) के जुलूस को बोटा कदल, लाल बाजार से ज़डीबल में इमामबाड़ा तक पारंपरिक मार्ग से अनुमति दी गई। ट्रैफिक पुलिस ने यातायात के सुचारू प्रवाह के लिए एक सलाह जारी कर दी। आशूरा के जुलूस में भाग लेने वाले अज़ादारों के लिए सुगम मार्ग सुनिश्चित करने के लिए विस्तृत व्यवस्था की गई। यौम-ए-आशूरा 10वें मुहर्रम को मनाया गया।
यहां एक तर्क दिया जा सकता है कि उपराज्यपाल मनोज सिन्हा को केवल विकास से सरोकार है, वोट बैंक से नहीं। मगर इसका यह तात्पर्य नहीं होना चाहिए कि लोक के प्रति दायित्व न हो। तेजी से बदलते परिदृश्य में वादी को व्यवस्थित रखने का दायित्व उपराज्यपाल पर बढ़ा है।