संदीप सक्सेना
प्रोफेसर देव प्रकाश मिश्र की अधुनातन कृति ‘काशी का कबीर’ गुजरात से यात्रा कर सनातन नगरी काशी को अपनी कर्मस्थली बनाने वाले नरेंद्र मोदी को समर्पित है। यह पुस्तक कुछ ऐसे सवालों को खड़ा करती है जो जाने या अनजाने आज विचारणीय हैं। साझी संस्कृति की विरासत में जीने वाला यह शहर सनातन संस्कृति के गर्भ से पैदा होता है। साहित्य और संस्कृति को जीने वाला यह शहर एक तरफ संत तुलसीदास जैसे कवि को तो दूसरी तरफ कबीर जैसे संत को पैदा करता है। यह शहर संत तुलसीदास की वैष्णवी परंपरा को अपना अस्तित्व एवं अस्मिता मानता है तो दूसरी तरफ इसकी आत्मा कबीर और बुल्ले शाह जैसे सूफियों की जीवन शैली के साथ इनकी रचनाओं में जीवंत है। वर्तमान संदर्भ में राजनीतिक सांस्कृतिक दृष्टि से इसे समझा जा सकता है। इसे जब जब घायल किया गया उससे मानवीयता को ठेस पहुंची।
दावे के साथ कोई भी सत्य अंतिम नहीं होता
प्रोफ़ेसर मिश्र का मानना है कि दावे के साथ कोई भी सत्य अंतिम नहीं होता, सत्य उस समय तक अस्तित्व में रहता है जब तक उसे चुनौती नहीं मिलती। चुनौती मिलने के बाद ही स्थापित सत्य सत्याभास में बदल जाता है और सत्याभास की स्थिति ही माया की अवधारणा है जो कि काल सापेक्ष होती है। इसका जन्म तात्कालिक परिस्थितियों एवं परिवेश से होता है। काशी इसका अपवाद नहीं है। काशी सनातन संस्कृति की पोषक है। सनातन संस्कृति विश्व मानववादी है ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए काशी विशेष आकर्षण केंद्र रही
तमाम मुगल शासकों के बाद ब्रितानी सरकार के केंद्र में काशी का विशेष महत्व रहा है और स्वाधीनता पश्चात भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए भी काशी विशेष आकर्षण केंद्र रही है। इन सवालों के ताने बाने को समझने का प्रयास इस पुस्तक में किया गया है। यदि सांगोपांग इस पुस्तक को देखा जाए तो यह पुस्तक आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक होने के साथ-साथ राजनीतिक विचारधारा का भी मूल्यांकन करती है।
सनातन संस्कृति की आत्मा रही
काशी का कुछ इतिहास ऐसा ही रहा है जिसके गर्भ में सनातन संस्कृति की आत्मा रही है और इसकी आत्मा को कुचलने का प्रयास मुगलों से लेकर ब्रितानी सरकारों ने किया है। सदियों तक इस देश को गुलाम रहने का महत्वपूर्ण कारण यह रहा है कि जितने भी आक्रमणकारी आए, सभी ने यहां की भाषा और संस्कृति पर आक्रमण किया और उसे विनष्ट किया । इसका राजनीति से गहरा रिश्ता है और इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उस प्राचीन संस्कृति को बेहतरीन ढंग से पेश कर रहे हैं ।
वैष्णव जन को तेने कहिए
विश्वगुरु की परिकल्पना के लिए यह आवश्यक है कि गुजराती कवि नरसी मेहता की पंक्ति ‘वैष्णव जन को तेने कहिए, जो पीड पराई जाने।’ इसकी विवेचना राजनैतिक सामाजिक और सांस्कृतिक की दृष्टि से इस पुस्तक में की गई है।
काशी की भूमि परिवर्तनकामी रही है क्योंकि काशी की विचारधारा सनातन संस्कृति की है। संत कबीर सनातन संस्कृति के पोषक कवि रहे हैं। सनातन जो कि शाश्वत है और शाश्वत सत्य होता है। कबीर शाश्वत कवि हैं और शाश्वत अनश्वर है। इस दृष्टि से कबीर सामाजिक क्रांति द्वारा समाज में बदलाव चाहते हैं। संत तुलसीदास और कबीर जैसे कवियों ने मानवीय संवेदना की उस सनातन प्रवृत्ति को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया, जिसमें विश्व बंधुत्व के साथ राम राज्य की परिकल्पना की रूपरेखा प्रस्तुत की गई है जिसके केंद्र में सनातन संस्कृति है।
भारत का विश्वगुरू बनना बगैर सनातन संस्कृति के संभव नहीं है। सनातन संस्कृति को उसके मूल स्वरूप में समग्रता से आत्मसात करने की जरूरत है।
इन कवियों ने अपनी आध्यात्मिक अनुभूति से प्राप्त सत्य से सामाजिक परिवर्तन की क्रांति की मशाल को प्रज्वलित किया है ।साहित्य और राजनीति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।सामाजिक परिवर्तन से समाज में बदलाव होता है और बदलाव से नव युग का आगमन होता है । इस दृष्टि से कबीर आज नए संदर्भों में प्रभावी एवं प्रासंगिक नजर आते हैं ।
मानव सेवा संवेदना का केंद्र बिंदु
मानव सेवा इनकी संवेदना का केंद्र बिंदु है।इनमें और संत तुलसी दास में एक समानता यह है कि इन्होंने स्वांतः सुखाय को अपनी कर्म भूमि के केंद्र में रखा और इनका स्वान्तः सुखाय विश्व कल्याण की भावना से ओतप्रोत है। हमारी सभ्यता और संस्कृति का केंद्र ,”वसुधैव कुटुंबकम्” है। हालांकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रोफ़ेसर नामवर सिंह एवं पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे विद्वानों ने कबीर की आध्यात्मिकता को विश्लेषित किया है लेकिन प्रोफ़ेसर देव प्रकाश मिश्र की पुस्तक “काशी का कबीर”में काशी के साथ साथ कबीर की दृष्टि को सामाजिक राजनैतिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि को प्रधानता दी गई है । तेरह अध्यायों में लिखित यह पुस्तक वर्तमान में भारतीय संस्कृति का प्रतिबिंब है।