भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे ‘बहुत ही उत्साहवर्धक’ करार दिए जा सकते हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि देश ने नकारात्मकता की राजनीति को एक प्रकार से बिल्कुल नकार दिया है। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 4 दिसंबर को विपक्षी दलों से आग्रह किया कि संसद के शीतकालीन सत्र में वे विधानसभा चुनावों में मिली पराजय का ‘गुस्सा’ न निकालें बल्कि उससे सीख लेते हुए पिछले नौ सालों की नकारात्मकता को पीछे छोड़ें और सकारात्मक रूख के साथ आगे बढ़ें, तभी उनके प्रति लोगों का नजरिया बदल सकता है।
प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि यदि विपक्षी दल ‘विरोध के लिए विरोध’ का तरीका छोड़ दें और देश हित में सकारात्मक चीजों में साथ दें तो देश के मन में विपक्ष के प्रति आज जो नफरत है, हो सकता है वह मोहब्बत में बदल जाए। 3 दिसंबर को आए चुनाव परिणामों में चार में से तीन राज्यों में भाजपा ने भारी बहुमत से जीत हासिल की है। मध्य प्रदेश जैसे प्रमुख राज्य में उसने सत्ता में वापसी की, वहीं राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने में भाजपा सफल रही है। तेलंगाना में भले ही भाजपा सत्तासीन होने में विफल रही लेकिन दक्षिणी राज्य में उसने अपना अब तक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन भी किया है। यह इस बात की ओर भी इशारा कर रहा है कि दक्षिण में भी भाजपा उतरोत्तर अपनी पकड़ मजबूत बनाती जा रही है। एक खास बात इन चुनावों की यह रही कि ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे और उनकी साख पर लड़े गए। भाजपा के लिए इसके परिणाम अद्भुत आए । इन चुनावों में अगर किसी की गारंटी चली तो वो थी सिर्फ पीएम मोदी की गारंटी।
अब जब नतीजे आ चुके हैं और मध्य प्रदेश में भाजपा को सबसे बड़ी जीत मिली है, तो हम यह कह सकते हैं कि इन नतीजों ने सबको चौंका दिया है। विपक्षी गठबंधन का खेमा तो पूरी तरह से हत्प्रभ सा है। अब उसने फिर वही ईवीएम में गड़बड़ी का पुराना राग आलापना प्रारंभ कर दिया है। राजस्थान ने पांच-पांच साल पर सरकार बदलने की परंपरा का पालन करते हुए एक बार फिर भाजपा पर भरोसा जताया है। मध्य प्रदेश और राजस्थान, दोनों ही देश के बड़े राज्यों में हैं और दोनों का ही भारतीय राजनीति में एक अलग स्थान है। इन दोनों ही राज्यों के नतीजों से यह स्पष्ट है कि कांग्रेस पहले की अपेक्षा और कमजोर हो गई है तथा भाजपा का मनोबल 2024 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अत्यधिक ऊंचाइयों पर पहुंच गया है।
2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव को लेकर विपक्षी पार्टियां अभी हाल ही में एकजुट हुई थीं। विपक्षी गठबंधन की 28 पार्टियों के 63 नेताओं ने मुंबई की बैठक में 5 कमेटियां बनाने पर सहमति बनाई थी ताकि चुनावों में भाजपा को घेरा जा सके। कैसे विपक्ष का मोर्चा मिलकर मुद्दे उठाएगा, रैली करेगा, प्रेस कॉन्फ्रेंस करेगा और भाजपा की राह को मुश्किल बनाएगा किंतु हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में विपक्षी गठबंधन तो कहीं नजर ही नहीं आया, अलबत्ता कांग्रेस तीन राज्यों में बुरी तरह से चुनाव हार गई। यही नहीं, दो राज्यों में तो उसके हाथ से सत्ता भी निकल गई।
देश के राजनीतिक परिदृश्य में केंद्रीय स्तर पर लोकसभा चुनाव के लिए एक मजबूत विपक्ष की तलाश हो रही थी पर मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस की हार से कांग्रेस की स्थिति विपक्षी गठबंधन में कमजोर होती नजर आ रही है। विशेष रूप से कर्नाटक का चुनाव जीतने के बाद कांग्रेस को जो मनोबल प्राप्त हुआ था, वह उसने मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव हारकर पूरी तरह से गंवा दिया है। हालांकि चार राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों पर अगर गौर किया जाए तो ऐसा बहुत कुछ है जिससे सीखकर आगे बढ़ा जा सकता है।
देश के केंद्रीय या हृदय प्रदेश में भाजपा ने कांग्रेस को हरा कर चुनावी परिदृश्य में बहुत पीछे धकेल दिया है। देश की सशक्त केंद्रीय सत्ता को अब यह ध्यान रखना होगा कि उसकी अपनी बुनियादी हिंदी पट्टी को अभी भी पूर्ण रूप से एक आदर्श विकसित राज्य का इंतजार है और शायद मतदाता भी यही चाहता है। इन चुनाव परिणामों ने यह भी दिखाया है कि अभद्र भाषा कतई स्वीकार्य नहीं है। तेलंगाना में भारत राष्ट्र समिति के अध्यक्ष व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव को अगर मिसाल की तरह लें तो पता चलेगा कि जमीन से उठकर ऊपर आए इस नेता के परिवारवाद से लेकर बड़बोलेपन तक, अति-महत्वाकांक्षा से लेकर देश के प्रधानमंत्री के साथ दुर्व्यवहार तक; देश ने बहुत कुछ देखा व समझा। वह देश के नेता बनना चाहते थे पर तेलंगाना की जनता ने उन्हें प्रदेश के लायक भी नहीं छोड़ा। इसके बावजूद अनेक विपक्षी नेता अभी भी अमर्यादित आचरण से बाज नहीं आ रहे। कभी सनातन धर्म का अपमान तो कभी प्रधानमंत्री के लिए अपशब्दों का प्रयोग अनवरत जारी है। हाल ही में एक द्रमुक नेता ने भाजपा के जीत वाले प्रदेशों को गोमूत्र वाला प्रदेश कह कर संसद में इन राज्यों के मतदाताओं का अपमान किया। अपशब्दों का प्रयोग करने वाले नेता शायद यह नहीं समझ पा रहे कि इसकी कीमत उन्हें तथा संपूर्ण विपक्षी गठबंधन को 2024 के आम चुनाव में बुरी तरह हार का सामना कर के भी चुकानी पड़ सकती है। साथ ही चुनाव जीतने के लिए बांटी गईं रेवड़ियां भी काम नहीं आएंगी, यह भी साफ है।