ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। पंडित जवाहरलाल नेहरू के समय से ही केंद्र सरकार में इंदिरा गांधी का खूब दखल रहता था। यह सिलसिला उनके बाद भी जारी रहा। यह कहानी जनवरी 1965 की है। विष्णु शर्मा अपनी किताब इंदिरा फाइल्स में लिखते हैं, संविधान के मुताबिक हिंदी को आधिकारिक रूप से राजभाषा के तौर पर लागू करने का वक्त आ चुका था लेकिन मद्रास में इसका विरोध होने लगा।
प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री हिंदी की व्यापक स्वीकार्यता के पक्षधर थे, इसलिए उन्होंने विरोध पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया लेकिन मद्रास के बड़े नेता के कामराज से जरूरी सलाह ले रहे थे। कामराज की सलाह पर ही शास्त्री मद्रास नहीं गए लेकिन तत्कालीन सूचना प्रसारण मंत्री इंदिरा गांधी अकस्मात बिना किसी को बताए मद्रास पहुंच गई ं। इंदिरा ने वहां प्रदर्शनकारियों से भेंट की और उनकी मांगों को मानने का आश्वासन भी दे दिया। संविधान के मुताबिक 15 साल के अंदर हिंदी को राजभाषा के तौर पर लागू किया जाना था। ऐसे में सरकार अगर अडिग रहती तो हिंदी पूरे देश में लागू हो जाती, लेकिन इंदिरा के इस फैसले से प्रदर्शनकारियों का मनोबल बढ़ा और हिंदी आज तक लागू नहीं हो पाई। आज इसे बढ़ाने की जब भी बात होती है तो गैर हिंदीभाषी राज्यों में हिंदी का विरोध प्रारम्भ ो जाता है।