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नई दिल्ली। राममंदिर मुद्दे की नींव कांग्रेस ने 1948 में रखी थी। कांग्रेस राज में ताला खुला, मंदिर की नींव रखी गई,कांग्रेस के दौर में विवादित स्थल पर मूर्ति रखी गई।
अयोध्या की विरासत जितनी पुरानी है, उतना ही पेचीदा यहां की जमीन पर उठा विवाद भी रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद राममंदिर निर्माण का काम आज अंतिम चरण में पहुंच चुका है। बीजेपी राज में आज भले ही राममंदिर बनने का सपना साकार हो रहा हो, लेकिन अयोध्या के विवादित स्थल पर मूर्ति रखने, बाबरी का ताला खुलवाने से लेकर राम मंदिर का शिलान्यास और मस्जिद का विध्वंस तक कांग्रेस की सत्ता में हुआ। हर स्थिति व समय काल में कांग्रेस की भूमिका संदेहास्पद रही, मंदिर विरोधी रही और अवसरवादिता से भरपूर रही।
भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या में 1528 में मीर बाकी पर मंदिर गिराकर मस्जिद बनाने का आरोप लगा और बाद में हिंदू-मुस्लिम समुदाय में विवाद का यही कारण बना। 1885 में राममंदिर के निर्माण की मांग उठी और यह मांग करने वाले थे महंत रघुवर दास। 1947 में देश आजाद हुआ और 1948 में महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई। इसी के बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई और आचार्य नरेंद्र देव समेत सभी विधायकों ने विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया।
कांग्रेस नेता उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत ने 1948 में हुए उपचुनाव में फैजाबाद से आचार्य नरेंद्र देव के खिलाफ एक बड़े हिंदू संत बाबा राघव दास को उम्मीदवार बनाया था। गोविंद वल्लभ पंत ने अपने भाषणों में बार-बार कहा था कि आचार्य नरेंद्र देव भगवान राम को नहीं मानते हैं, वे नास्तिक हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की नगरी अयोध्या ऐसे व्यक्ति को कैसे स्वीकार कर पाएगी। इसका नतीजा रहा कि नरेंद्र देव चुनाव हार गए।
बाबा राघव दास की जीत से राम मंदिर समर्थकों के हौसले बुलंद हुए और उन्होंने जुलाई 1949 में उत्तर प्रदेश सरकार को पत्र लिखकर फिर से मंदिर निर्माण की अनुमति मांगी। इसके बाद विवाद बढ़ने लगा तो पुलिस तैनात कर दी गई। तब कांग्रेस का केंद्र से लेकर राज्य तक में राज था। 22-23 दिसंबर 1949 की रात विवादित स्थल के अंदर राम-जानकी और लक्ष्मण की मूर्तियां रख दी गईं ं।
अदालत से विशेष इजाजत मांगी थी
1950 में गोपाल सिंह विशारद ने भगवान राम की पूजा अर्चना के लिए अदालत से विशेष इजाजत मांगी थी। महंत परमहंस रामचंद्र दास ने हिंदुओं की पूजा जारी रखने के लिए मुकदमा दायर कर दिया। अस्सी के दशक में आस्था और मंदिर के आसपास की राजनीति मुख्य केंद्र में आ गई। कांग्रेस में राजीव गांधी का दौर आ चुका था और वीएचपी राम मंदिर मुद्दे को लेकर माहौल बनाने में जुटी हुई थी।
फैजाबाद (अब अयोध्या) से हिंदू संत बाबा राघवदास को कांग्रेस ने बनाया था उम्मीदवार
मूर्तियां न हटाने और पूजा जारी रखने का कोर्ट का आदेश
एक फरवरी 1986 को एक स्थानीय अदालत ने विवादित स्थान से मूर्तियां न हटाने और पूजा जारी रखने का आदेश दे दिया। इसके बाद बाबरी का ताला खुला।
वीएचपी ही नहीं, बीजेपी ने भी राम मंदिर को अपने एजेंडे में शामिल कर लिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बीजेपी को मात देने के लिए राम मंदिर के शिलान्यास की अनुमति दे दी। नारायण दत्त तिवारी उस समय सूबे के मुख्यमंत्री थे। नवंबर 1989 में वीएचपी सहित तमाम साधु-संतों ने राम मंदिर का शिलान्यास किया।
राजीव ने अयोध्या से की चुनाव अभियान की शुरुआत
इसके बाद राम मंदिर 1989 के लोकसभा चुनाव प्रचार अभियान की शुरूआत राजीव गांधी ने अयोध्या से की। इसके बाद राम मंदिर के समर्थन में भीड़ जुटाने केलिए बीजेपी ने अपना अभियान शुरू कर दिया।
आडवाणी की रथ यात्रा की शुरुआत
25 सितंबर 1990 को बीजेपी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी रथ यात्रा की शुरुआत की थी। इसी यात्रा के दो साल बाद 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों ने अयोध्या में विवादित ढांचे को गिरा दिया। यह वह समय था जब केंद्र में नरसिम्हा राव के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी और सूबे में कल्याण सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार। तब से कांग्रेस यूपी में आज तक वापसी नहीं कर सकी है।
कांग्रेस नेता कमलनाथ कह रहे हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने साल 1985 में मंदिर का ताला खोल दिया था। उन्होंने 1989 में ही शिलान्यास की बात कही थी, लेकिन हम इसे राजनीतिक मंच पर नहीं लाए। कांग्रेस ने मंदिर पर कोर्ट के फैसले का सम्मान किया। सभी भारतवासी मंदिर चाहते हैं। जब मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला हो गया, तो बीजेपी इसे क्यों भुनाने में जुटी हुई है?
वहीं, संघ विचारक और राज्यसभा सदस्य राकेश सिन्हा कहते हैं कि दोहरापन कांग्रेस के चरित्र का हिस्सा बन गया है। सत्ता को पाने के लिए अपनी विचाराधारा से भी कांग्रेस समझौता करती जा रही है। विवादित स्थल पर शिलान्यास जरूर कांग्रेस के दौर में हुआ था, लेकिन उस वक्त राजीव गांधी का समर्पण मंदिर के प्रति नहीं था बल्कि राजनीतिक अवसरवादिता थी और सत्ता को पाने के लिए उन्होंने कदम उठाया था। कांग्रेस नेता आज इतिहास याद दिला रहे हैं, यह उनकी सत्ता की लालसा को दर्शाता है। यह बात क्यों नहीं कहते हैं कि राममंदिर की राह में कांग्रेस रोड़ा अटकाने का काम करती रही है।
राकेश सिन्हा कहते हैं कि कांग्रेस पिछले दो दशक से अपनी विचाराधारा के संकट से जूझ रही है। विचाराधार में आई गिरावट के चलते ही उसके कार्यकर्ता भी दूर हुए हैं। कांग्रेस का सामाजिक जनाधार भी पूरी तरह से खिसक गया है, आज न तो उसके साथ दलित हैं और न ही मुस्लिम। इसीलिए कांग्रेस के क्षत्रप हिंदूवाद से लेकर अल्पसंख्यकवाद को अपना रहे हैं ताकि वो अपने राजनीतिक वजूद को बचा सकें। यह भी कांग्रेस की अवसरवादिता ही तो है।