ब्लिट्ज ब्यूरो
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने दुष्कर्म के मामले में टू-फिंगर टेस्ट के इस्तेमाल पर लगी रोक बरकरार रखी है। जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस हेमा कोहली की बेंच ने चेतावनी दी कि ऐसा करने वालों को कदाचार का दोषी माना जाएगा। पीठ ने इसे दुर्भाग्यपूर्ण बताया कि इस तरह के टेस्ट आज भी जारी हैं।
अदालत ने स्वास्थ्य मंत्रालय को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि किसी भी स्थिति में यौन उत्पीड़न या रेप पीड़िता का टू फिंगर टेस्ट नहीं होना चाहिए। तेलंगाना हाई कोर्ट के एक फैसले के खिलाफ चल रहे केस पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की। अपने फैसले में बेंच ने कहा कि कोर्ट ने रेप केस में टू फिंगर टेस्ट नहीं करने का आदेश कई बार दिया है। दरअसल इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह महिलाओं को बार-बार रेप के समान प्रताड़ित करने जैसा है। यह टेस्ट उस गलत धारणा पर आधारित है कि सेक्सुअली एक्टिव महिला का बलात्कार नहीं किया जा सकता है।
अस्पतालों के लिए दिशानिर्देश जारी
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और राज्य सरकारों के लिए निर्देश दिया कि टेस्ट से जुड़े दिशानिर्देश सभी सरकारी व निजी अस्पतालों तक पहुंच जाएं। साथ ही हेल्थ वर्कर्स को वर्कशॉप के जरिए विक्टिम की जांच करने वाले दूसरे टेस्ट की ट्रेनिंग दी जाए जिसका वैज्ञानिक आधार हो। इसके अलावा मेडिकल सिलेबस का रिव्यू करने की भी जरूरत है ताकि भावी डॉक्टर्स की ओर से इस टेस्ट की सलाह न दी जाए।
क्या है टू फिंगर टेस्ट?
मालूम हो कि टू फिंगर टेस्ट एक मैन्युअल प्रक्रिया है। इसके तहत डॉक्टर पीड़िता के प्राइवेट पार्ट में एक या दो उंगली डालकर टेस्ट करते हैं कि वह वर्जिन है या नहीं। अगर उंगलियां आसानी से चली जाती हैं तो माना जाता है कि वह सेक्सुअली एक्टिव थी। इससे वहां उपस्थित हायमन का पता भी लगाया जाता है। इस प्रक्रिया की तीखी आलोचना होती रही है जिस पर सुप्रीम कोर्ट पहले ही रोक लगा चुका है।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कानून क्या कहते हैं?
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) पहले ही टू-फिंगर टेस्ट को अनैतिक बता चुका है। डब्लूएचओ ने कहा था कि रेप के केस में अकेले हाइमन की जांच से सब कुछ पता नहीं चलता है।
टू-फिंगर टेस्ट मानवाधिकार उल्लंघन के साथ ही पीड़िता के लिए दर्द का कारण बन सकता है। ये यौन हिंसा जैसा है जिसे पीड़िता दोबारा अनुभव करती है।